Wednesday, 28 July 2021

कठपुतलियाँ


मुंडेर पर
दाना चुगने आती
चिडियों के टूटे पंख
इकट्ठा करती,
नभ में उड़ते देख
उनके कलरव पर
आनंदित होती
मैं चिड़िया हो जाना
चाहती हूँ,
मुझे चिड़िया पसंद है
क्योंकि अबूझ भाषा में
मुझसे बिना कोई प्रश्न किये
वो करती हैं मुझसे संवाद।

मखमली,कोमल,
खिलती कलियों, फूलों की
पंखुड़ियों को छूकर सिहरती हूँ
मुरझाये फूल देख
उदास हो जाती हूँ,
हवा में डोलते फूल देख
मुग्ध हो मुस्कुराने लगती हूँ,
मुझे फूल पसंद है
क्योंकि फूल नहीं टोकते मुझे
मेरी मनमानी पर।

आसमान में टँके
सूरज,चंदा से
छिटके मोतियों से
शृंगार करती,
बादलों की ढेरियों 
तारों के झुंडों में
सहज विचरती हूँ
मेरे आँगन में सांझ ढले
जादुई परियाँ आकर
जी-भर बतियाती है
मुझे मेरी कल्पनाओं की
आकाशगंगा पसंद है,
क्योंकि यथार्थ की
सारी पीड़ा ढककर
मुझे छुपा लेती है
अपनी बाहों में।

नदी,ताल,झील,झरनों की
निश्छल खिलखिलाहट
मुझे मछली बना देती हैं
मैं तैरती पानी के बीच
चट्टानों में बैठी 
प्रेमगीत गुनगुनाने लगती हूँ,
मुझे समुंदर की
अगड़ाईयाँ पसंद है
क्योंकि मेरे आक्रोश का 
उफ़ान सहकर भी
छिड़कता है अपनी शीतलता
बिना मेरी गलती बताये।

प्रकृति का मौन सानिध्य
मुझे मनुष्यों से ज्यादा
पसंद है,
यद्यपि प्रकृति का अंश है मानव
तथापि 
प्रकृति मुझसे मेरी
कमजोरियों पर प्रश्न नहीं करती
गणित की कमज़ोर छात्रा
तर्क-वितर्क के समीकरणों में उलझने
से बचना चाहती हूँ,
प्रश्नों के जाल को सुलझाने की
जटिलताओं से घबराकर
अपनी सहूलियत से
अपनी मनमर्जी से 
निरंकुश होकर जीने की
महत्वाकांक्षा में
जीवंत
 प्रकृति की ओट लेकर
परिस्थितियों को 
अपने मनोनुकूल
गढ़ने की लिप्सा में
पसंद करने लगती हूँ
 कठपुतलियाँ।

#श्वेता सिन्हा
२८जुलाई २०२१


 

23 comments:

  1. शुभ संध्या..
    प्रकृति का मौन सानिध्य
    मुझे मनुष्यों से ज्यादा
    पसंद है,
    यद्यपि प्रकृति का अंश है मानव
    तथापि
    प्रकृति मुझसे मेरी
    कमजोरियों पर प्रश्न नहीं करती
    सटीक ..
    बेहतरीन..
    सादर...

    ReplyDelete
  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29-07-2021को चर्चा – 4,140 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

    ReplyDelete
  3. प्रकृति और उसके अंगों की उन्मुक्तता प्रेरक है। सुन्दर रचना।

    ReplyDelete
  4. बहुत सुंदर प्रिय श्वेता ! कवि मन को जीवन की विद्रूपताओं से दूर प्रकृति के सानिध्य में परम सुख मिलता है |  तर्क वितर्क में उलझना दुनियादारी के लिए  जरूरी  है पर प्रकृति  किसी को नहीं  उलझाती  | वह मुक्त करती है--  अहम् भाव  के  कुटिल  चक्र से  !!! इंसान के पास ना होकर भी   --  दिवास्वप्न   के रूप में - प्रकृति , फूल , चिड़िया ,  समंदर   इत्यादि कल्पनाओं में रंग भरते हुए मन को  अजीब  सुकून प्रदान करते हैं | हमेशा की तरह एक बेहतरीन रचना के लिए  ढेरों बधाईयाँ  और शुभकामनाएं| 

    ReplyDelete
  5. खो सी जाती हूँ रचना की भावाभिव्यक्ति परिचित लगती है
    शुभकामनाएं छुटकी

    ReplyDelete
  6. आसमान में टँके
    सूरज,चंदा से
    छिटके मोतियों से
    शृंगार करती,
    बादलों की ढेरियों
    तारों के झुंडों में
    सहज विचरती हूँ
    मेरे आँगन में सांझ ढले
    जादुई परियाँ आकर
    जी-भर बतियाती है
    मुझे मेरी कल्पनाओं की
    आकाशगंगा पसंद है,
    क्योंकि यथार्थ की
    सारी पीड़ा ढककर
    मुझे छुपा लेती है
    अपनी बाहों में।.. सुंदर एहसासों और भावों का अनूठा संगम ,एक से बढ़कर एक छवियां प्रस्तुत करती मनमोहक प्रस्तुति, बहुत शुभकामनाएं शिवाजी।

    ReplyDelete
  7. कठपुतलियों की तरह
    परिस्थितियों को नचा कर
    समझो कि तुम निरंकुश हो
    मनोकूल कर सको सभी कुछ
    फिर तुम स्वयं में स्वतंत्र हो ।।

    जटिल प्रश्नों के उत्तर देने के बजाय ,प्रकृति से संवाद करना पसंद इसलिए कि प्रकृति कोई प्रश्न नहीं करती ।
    चिड़िया , फूल , बादल, सूरज , चाँद , तारे सब तुम्हारी मनोदशा शायद सुन लेते हैं , इसी लिए उनसे बात करना पसंद है , पलट कर कोई सवाल नहीं करते । सच है ,कहते हैं कि अगर अपने मन की भड़ास निकालनी हो तो आईने के सामने कह दो , नहीं तो किसी पेड़ से कह दो ,।
    यही भाव इस रचना में लगे ।
    सस्नेह

    ReplyDelete
    Replies
    1. मुझे भी समझ आ गई।

      Delete
  8. मन को विश्रांत करते सुंदर तथ्य, सच जीवन कितनी बार इन प्रश्नों से विचलित हुआ है,पर कहां लिख पाते इनसे बचने का तरीका । हाँ मैं भी पाखी बनना चाहती हूँ,नभ छूना चाहती हूँ। मैं भी प्रकृति का मौन सानिध्य चाहती हूँ पर कभी कह नहीं पाई ।
    वाह! मेरे भावों को शब्द मिले एक व्योम मिला ।
    बहुत सुंदर सृजन श्वेता।
    बधाई आपको।

    ReplyDelete
  9. मलंग, मनभावन, मनमोहक, मनवांछित, मनमंत .....

    ReplyDelete
  10. मन ही तो है -बहुत स्वाभाविक है यदि कभी कुछ चाह लेता है!

    ReplyDelete
  11. जो आपकी आकांक्षाएं (या यूं कहिए कि भावनाएं) हैं, वही मेरी भी हैं श्वेता जी। इसीलिए मैं आपकी इस कविता से स्वयं को जुड़ा हुआ पा रहा हूँ। शब्द-शब्द अपना-सा लग रहा है।

    ReplyDelete
  12. वाह! बहुत सुंदर। प्रकृति से जोड़ता सुंदर-सार्थक सृजन। बहुत बुहत बधाई आपको।

    ReplyDelete
  13. मुझे मेरी कल्पनाओं की
    आकाशगंगा पसंद है,
    क्योंकि यथार्थ की
    सारी पीड़ा ढककर
    मुझे छुपा लेती है
    अपनी बाहों में।
    बहुत ही बेहतरीन और सुंदर अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  14. मन मोहता बहुत ही सुंदर सृजन।
    शब्दों में ढ़लते भाव मंगल कामना के साथ हृदय में उतरते।
    बहुत ही सुंदर।
    सादर

    ReplyDelete
  15. जटिलताओं से घबराकर
    अपनी सहूलियत से
    अपनी मनमर्जी से
    निरंकुश होकर जीने की
    महत्वाकांक्षा में
    जीवंत
    प्रकृति की ओट लेकर
    परिस्थितियों को
    अपने मनोनुकूल
    गढ़ने की लिप्सा में
    पसंद करने लगती हूँ
    कठपुतलियाँ।
    जटिलताएं कहाँ भाती हैं किसी को...
    बहुत ही लाजवाब मनभावन सृजन
    प्रकृति पर आपके सृजन बहुत ही अद्भुत एवं लाजवाब होते हैं श्वेता जी!निशब्द हो जाती हूँ मैं तो...
    वाह!!!

    ReplyDelete
  16. मैं चिड़िया हो जाना
    चाहती हूँ,
    मुझे चिड़िया पसंद है
    क्योंकि अबूझ भाषा में
    मुझसे बिना कोई प्रश्न किये
    वो करती हैं मुझसे संवाद।
    अत्यंत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।

    ReplyDelete
  17. बधाई चिट्ठे के पुनर्जनम के लिये। :)

    ReplyDelete
  18. कल्पनाओं का संसार सभी को पसंद होता है .. किसी का दखल जो नहीं होता ...
    पर ये यथार्थ कभी कभी सच की दुनिया में ले आता है ...
    मन के गहरे जज्बात अप बाखूबी रचना में उतार लेती हैं ... बहुत बधाई ...

    ReplyDelete
  19. बहुत बहुत सुन्दर मधुर सराहनीय रचना |

    ReplyDelete
  20. बहुत ही सुंदर रचना, आज देखी। प्रकृति से प्रेम करनेवाला ही उसके सान्निध्य के सुख को जान सकता है।

    ReplyDelete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...