कल तक अधमरी हो रही
सिकुड़ी गिन साँसे ले रही
पाकर वर्षा का अमृत जल
बलखाती बहकने लगी नदी
लाल पानी तटों को तोड़कर
राह बस्ती गाँवों पर मोड़कर
निगलती जाती है लाल मौत
पाई जोड़ कर रखेे सपने
दो रोटी सूखी अमृत चखते
छतों को छानते डेगची में
टूटी चारपाई में पाँव सिकोड़े
कुटिया में चैन से पड़े लोग
इतना क्यों तुम्हे मन भा गये
बस्ती में लाल कफन बिछा गये
पलक झपकते मौत बने खा गये
लाल मौत से जीने की जंग लिये
ऊँची पेड़ की शाख पर लटके
कहीं स्कूल की छत पर चिल्लाते
अधनंगे भूख से बिलबिलाते
माँओं की छाती नोचते बच्चे
सूखे अधरों पर जीभ फेरते
मरियल सूखे देह का बोझ लादे
बूढ़ी पनीली उम्मीद भरी आँखें
आसमां देखते है टकटकी बाँधे
भोजन के पैकेट लिए देवदूतो की
राहत शिविरों के गंदे टेंटों में
जानवरों के झुण्ड से रिरियाते
बेहाल जीने को मजबूर ज़िदगी
मुट्ठी भर अनाज भीख माँगते
मददगार बन आये व्यापारियों से
परिवार से बिछुड़ी औरतों को
जबह करने को आतुर राक्षस
ब्रेकिंग न्यूज बनाती मीडिया
आश्वासन के कपड़े पहनाते
कागज़ो पर राहत दिखाते
संवेदहनहीन बड़बोले नुमाईदे
लाल पानी उतरने के बाद की
बदबू , सडन , गंदगी को झेलते
लुट गये सपनों की चिंदियाँ समेटे
महामारी की आशंंका से सहमेे
खौफ ओढ़े वापस लौट जाते है
अपनी लाशों को अपने काँधे लादे
टूटे दरके आशियाने में फिर से
तलाशने दो रोटियाँ सुख की
लाल पानी के कोप से जीवित
अंधेरों को चीरकर आगे बढ़ते
लाल पानी लाल मौत को हराते
जीना सिखलाते बहादुर लोग
#श्वेता🍁
अपनी लाशों को अपने काँधे लादे
टूटे दरके आशियाने में फिर से
तलाशने दो रोटियाँ सुख की
लाल पानी के कोप से जीवित
अंधेरों को चीरकर आगे बढ़ते
लाल पानी लाल मौत को हराते
जीना सिखलाते बहादुर लोग
#श्वेता🍁
वर्षा जीवनदायिनी ! नदी माता !लेकिन हर बारिश में अतिवृष्टि से प्रभावित लोकजीवन,हर बार उसी तरह जूझता, टूटता और बाढ़ उतर जाने पर फिर वहीं जाकर रहने को मजबूर ! जानते हुए भी कि इस बार बच गए लेकिन मौत अगले बरस फिर मँडराएगी । 26 जुलाई 2005 को जब मुंबई जलप्लावन का शिकार हुई थी, मेरे कुछ अपनों ने इस हाहाकार को भोगा था श्वेताजी !इस रचना ने मन को झकझोर दिया है, आँखें नम हो आई हैं....
ReplyDeleteजी, मीना जी, बहुत दुख हुआ सुनकर,मेरी नम श्रद्धाजंलि है उनको। बाढ़ एक ऐसी सच्चाई है जो लगभग हर नदी किनारे बसे लोगो पर बीतती है।
Deleteबहुत सहानुभूति है उनसे मेरी और अपनी तरफ से किसी की मदद कर पाये तो वो भी करते है।
बहुत आभार आपका।
अंतस को झकझोरती बहुत मर्मस्पर्शी और प्रभावी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteजी,बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय जी।
Deleteबहुत ही बेहतरीन
ReplyDeleteशानदार रचना
बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका लोकेश जी।
Deleteलाल पानी तटों को तोड़कर,राह बस्ती गावों को मोड़कर
ReplyDeleteनिगलती जाती है लाल मौत ।जीवन का सत्य यही प्राकृतिक आपदाओं की पहली मार बस्ती और गांवों के लोगों को सहनी पड़ती है ।जो कि बड़ा ही दुखदायी है ।
सरकार बाते करती है , औऱ मीडिया को मसाला मिल जाता है
जी, रितु जी यही सच्चाई है कोई समझता नहीं उन पीड़ितों का दर्द।
Deleteबहुत ही मार्मिक वर्णन !
ReplyDeleteजी,बहुत आभार आपका।
Deleteप्रकृति की रौद्र रूप को व्यक्त करती मार्मिक रचना
ReplyDeleteजी, बहुत बहुत आभार आपका लोकेश जी।
Deleteअधिकता हर बात की बुरी हो जाती है ... जीवन का अमृत भी विष बन जाता है और वर्षा जो ठंडक लाती है कहर बन के छा जाती है ... प्राकृति के इस रूप को भी झेलना होता है ...
ReplyDeleteजी, सही कहा आपने नासवा जी।
Deleteबहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका।
बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका राकेश जी।
ReplyDeleteहृदयविदारक घटना का मर्मस्पर्शी चित्रण....
ReplyDeleteबहुत ही हृदय स्पर्शी रचना...
लाजवाब...
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी।
Deleteसुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
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