Sunday 14 October 2018

मन उलझन


एकाकीपन की बेला में
हिय विरहन-सा गाता है
धागे भावों के न सुलझे
मन उलझन में पड़ जाता है

जीवन का गणित सरल नहीं
चख अमृत घट बस गरल नहीं
पीड़ा की गाँठों को छूकर प्रिय
नेह बूँद सरस भर जाता है
तृषित भ्रमर की लोलुपता 
मन उलझन में पड़ जाता है

समय लहर की अविरल धारा
उर तृप्ति पल गिन-गिन हारा
सुख-दुख,कंटक जाल घिरा
पथ शशक समझ न पाता है
तब अनायास पाकर साथी 
मन उलझन में पड़ जाता है

मन चाहे मन को बाँधना क्यूँ ?
कठपुतली नहीं फिर साधना क्यूँ?
जी की असीमित इच्छाओं से
चित्त उद्विग्न, विरक्त हो जाता है
पर तुम्हें सामने पाता जब भी
मन उलझन में पड़ जाता है

जग जीवन का औचित्य है क्या?
मनु जन्म, मोक्ष,सुकृत्य है क्या?
आना-जाना फेरा क्यूँ है?
मन मूढ़ मति मेरा क्यूँ है?
राग-विराग मय पी-पीकर
मन उलझन में पड़ जाता है

--श्वेता सिन्हा

12 comments:

  1. जग जीवन का औचित्य है क्या?
    मनु जन्म, मोक्ष,सुकृत्य है क्या?
    आना-जाना फेरा क्यूँ है?
    मन मूढ़ मति मेरा क्यूँ है?
    राग-विराग मय पी-पीकर
    मन उलझन में पड़ जाता है
    बहुत ही सुंदर रचना सखी

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  2. वाह बहुत सुन्दर श्वेता आपकी लेखनी नित कुछ अचंभित करने वाला लिख देती है मां सरस्वती आपको सदा अपनी छत्रछाया देती रहे।
    काव्य भाव सभी अत्योत्तम।

    आपके भावों के आध्यात्मिक पक्ष पर कुछ पंक्तियाँ...

    मन की गति विरला ही जाने
    एकाकीपन अवलंब ढ़ूढता
    और एकांत में वास शांति का
    जो जो एकांत में है उतरता
    उद्विग्नता पर विजय है पाता

    बिना सहारा लिये किसी के
    वो महावीर गौतम बन जाता
    जगत नेह का स्वरुप है छलना
    पाने की चाहत में और उलझना

    प्रिय के नेह को मन अकुलाता
    मिलते ही वहीं उलझा जाता
    और उसी में बस सुख पाता
    ना मिले तो रोता भरमाता।

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  3. कठपुतली नहीं फिर साधना क्यूँ?
    जी की असीमित इच्छाओं से
    चित्त उद्विग्न, विरक्त हो जाता है
    पर तुम्हें सामने पाता जब भी
    मन उलझन में पड़ जाता है...

    एकाकीपन की स्थिति में मानव को मनोदशा को लेखनी के माध्यम से आपने बड़ा ही मार्मिक एवं जीवंत चित्रण किया है और राह भी दिखाया है। सच भी कहा कि मन कोई कठपुतली तो नही है न... आपका हृदय से आभार इस सुंदर रचना के लिये श्वेता जी।

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  4. बहुत ही सुन्दर रचना सखी
    बेहतरीन. ..
    एकाकीपन की बेला में
    हिय विरहन-सा गाता है
    धागे भावों के न सुलझे
    मन उलझन में पड़ जाता है

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  5. एकाकी मन...उलझन में पड़ जाता
    हृदय के भावों की सुंदरतम अभिव्यक्ति

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  6. मन चाहे मन को बाँधना क्यूँ ?
    कठपुतली नहीं फिर साधना क्यूँ?
    जी की असीमित इच्छाओं से
    चित्त उद्विग्न, विरक्त हो जाता है
    पर तुम्हें सामने पाता जब भी
    मन उलझन में पड़ जाता बहुत सुंदर भावों से सजी बेहतरीन रचना श्वेता जी

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  7. वाह स्वेता जी बहुत ही सुंदर।अब शब्द नही मिलते की कैसे व्यक्त कर,बहुत अच्छा लिखने लगे हो आप।बस ये धारा प्रवाह बना रहे यही कामना हैं-

    जीवन का गणित सरल नहीं
    चख अमृत घट बस गरल नहीं

    लाज़वाब

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  8. मन का ये उलझाए भी ख़ुद का ही पैदा किया हुआ है ...
    जीवन मृत्यु का फेरा भी तो वक सोच की अवस्था है बस ... किसी ने कहाँ देखा है ...
    एकाकी मन क्या क्या सोच जाए क्या पता ...

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  10. चित्त उद्विग्न, विरक्त हो जाता है
    पर तुम्हें सामने पाता जब भी
    .......सुंदर भावों से सजी रचना श्वेता जी

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  11. श्वेता दीदी आपके शब्दों में दिल की गहराई से निकलीं आवाजे सुनाई देती है। आप ने अपनों लेखन क्षमताओं को अद्वितीय ढंग से प्रस्तुत किया है। आपको बहुत सारा प्यार और शुभकामनाएं।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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