एकाकीपन की बेला में
हिय विरहन-सा गाता है
धागे भावों के न सुलझे
मन उलझन में पड़ जाता है
जीवन का गणित सरल नहीं
चख अमृत घट बस गरल नहीं
पीड़ा की गाँठों को छूकर प्रिय
नेह बूँद सरस भर जाता है
तृषित भ्रमर की लोलुपता
मन उलझन में पड़ जाता है
समय लहर की अविरल धारा
उर तृप्ति पल गिन-गिन हारा
सुख-दुख,कंटक जाल घिरा
पथ शशक समझ न पाता है
तब अनायास पाकर साथी
मन उलझन में पड़ जाता है
मन चाहे मन को बाँधना क्यूँ ?
कठपुतली नहीं फिर साधना क्यूँ?
जी की असीमित इच्छाओं से
चित्त उद्विग्न, विरक्त हो जाता है
पर तुम्हें सामने पाता जब भी
मन उलझन में पड़ जाता है
जग जीवन का औचित्य है क्या?
मनु जन्म, मोक्ष,सुकृत्य है क्या?
आना-जाना फेरा क्यूँ है?
मन मूढ़ मति मेरा क्यूँ है?
राग-विराग मय पी-पीकर
मन उलझन में पड़ जाता है
--श्वेता सिन्हा
जग जीवन का औचित्य है क्या?
ReplyDeleteमनु जन्म, मोक्ष,सुकृत्य है क्या?
आना-जाना फेरा क्यूँ है?
मन मूढ़ मति मेरा क्यूँ है?
राग-विराग मय पी-पीकर
मन उलझन में पड़ जाता है
बहुत ही सुंदर रचना सखी
वाह बहुत सुन्दर श्वेता आपकी लेखनी नित कुछ अचंभित करने वाला लिख देती है मां सरस्वती आपको सदा अपनी छत्रछाया देती रहे।
ReplyDeleteकाव्य भाव सभी अत्योत्तम।
आपके भावों के आध्यात्मिक पक्ष पर कुछ पंक्तियाँ...
मन की गति विरला ही जाने
एकाकीपन अवलंब ढ़ूढता
और एकांत में वास शांति का
जो जो एकांत में है उतरता
उद्विग्नता पर विजय है पाता
बिना सहारा लिये किसी के
वो महावीर गौतम बन जाता
जगत नेह का स्वरुप है छलना
पाने की चाहत में और उलझना
प्रिय के नेह को मन अकुलाता
मिलते ही वहीं उलझा जाता
और उसी में बस सुख पाता
ना मिले तो रोता भरमाता।
ReplyDeleteकठपुतली नहीं फिर साधना क्यूँ?
जी की असीमित इच्छाओं से
चित्त उद्विग्न, विरक्त हो जाता है
पर तुम्हें सामने पाता जब भी
मन उलझन में पड़ जाता है...
एकाकीपन की स्थिति में मानव को मनोदशा को लेखनी के माध्यम से आपने बड़ा ही मार्मिक एवं जीवंत चित्रण किया है और राह भी दिखाया है। सच भी कहा कि मन कोई कठपुतली तो नही है न... आपका हृदय से आभार इस सुंदर रचना के लिये श्वेता जी।
बहुत ही सुन्दर रचना सखी
ReplyDeleteबेहतरीन. ..
एकाकीपन की बेला में
हिय विरहन-सा गाता है
धागे भावों के न सुलझे
मन उलझन में पड़ जाता है
एकाकी मन...उलझन में पड़ जाता
ReplyDeleteहृदय के भावों की सुंदरतम अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमन चाहे मन को बाँधना क्यूँ ?
कठपुतली नहीं फिर साधना क्यूँ?
जी की असीमित इच्छाओं से
चित्त उद्विग्न, विरक्त हो जाता है
पर तुम्हें सामने पाता जब भी
मन उलझन में पड़ जाता बहुत सुंदर भावों से सजी बेहतरीन रचना श्वेता जी
वाह स्वेता जी बहुत ही सुंदर।अब शब्द नही मिलते की कैसे व्यक्त कर,बहुत अच्छा लिखने लगे हो आप।बस ये धारा प्रवाह बना रहे यही कामना हैं-
ReplyDeleteजीवन का गणित सरल नहीं
चख अमृत घट बस गरल नहीं
लाज़वाब
मन का ये उलझाए भी ख़ुद का ही पैदा किया हुआ है ...
ReplyDeleteजीवन मृत्यु का फेरा भी तो वक सोच की अवस्था है बस ... किसी ने कहाँ देखा है ...
एकाकी मन क्या क्या सोच जाए क्या पता ...
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ReplyDeleteSir I request you for public my article in your platform, these article are related to human values , teach and social reforms.
Deleteचित्त उद्विग्न, विरक्त हो जाता है
ReplyDeleteपर तुम्हें सामने पाता जब भी
.......सुंदर भावों से सजी रचना श्वेता जी
श्वेता दीदी आपके शब्दों में दिल की गहराई से निकलीं आवाजे सुनाई देती है। आप ने अपनों लेखन क्षमताओं को अद्वितीय ढंग से प्रस्तुत किया है। आपको बहुत सारा प्यार और शुभकामनाएं।
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