पृथ्वी दिवस पर मेरी एक रचना
पत्रिका लोकजंग में-
पुकार
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पेड़ों का मौन रुदन सुनो
अनसुना करो न तुम साथी
हरियाली खो जायेगी
तो गीत भी होंगे गुम साथी
अस्तित्व खो रहा गाँवों का
ताल,तल्लैया सूख रही
कंक्रीट के बढ़ते जंगल
मेड़ खेत की टूट रही
प्रगति के नाम दुहाते
पहाड़ों पर हुआ जुलुम साथी
सूरज का अग्निबाण चला
भस्म हो रही शीतलता
पिघल रहे हिमखंड अनवरत
खारे जल में है विह्वलता
असमय मेघ का आना-जाना
है प्रकृति विनाशी धुन साथी
नदियाँ गंदी नाला बनती
है बूँद-बूँद अब संकट में
भू-जल सोते सूख रहे
प्यास तड़पती मरघट में
सींच जतन कर कंठ धरा के
बादल से बरखा चुन साथी
हवा हुई अब ज़हरीली
घुटती साँसों पर पहरे हैं
धुँधलाये नभ में चंदा तारे
बादल के राज़ भी गहरे हैं
चिड़ियों की चीं-चीं यदा-कदा
खोई वो भोर की धुन साथी
घने वन,नग,झर-झर झरने
वन पंखी,पशुओं के कोलाहल
क्या स्मृतियों में रह जायेंगे?
पूछे धरती डर-डर पल-पल
आने वाली पीढ़ी ख़ातिर
प्रकृति उपहार तो बुन साथी?
#श्वेता सिन्हा
शानदार बहुत बहुत बधाई हो आपको पढना एक सुखद अनुभव है
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई स्वेता ।
ReplyDeleteहवा हुई अब ज़हरीली
ReplyDeleteघुटती साँसों पर पहरे हैं
धुँधलाये नभ में चंदा तारे
बादल के राज़ भी गहरे हैं
चिड़ियों की चीं-चीं यदा-कदा
खोई वो भोर की धुन साथी
...बहुत सुन्दर और सारगर्भित अभिव्यक्ति... बहुत बहुत बधाई...
घने वन,नग,झर-झर झरने
ReplyDeleteवन पंखी,पशुओं के कोलाहल
क्या स्मृतियों में रह जायेंगे?
पूछे धरती डर-डर पल-पल
निरंतर अवसान को ओर अग्रसर हरियाली और धरा के सौदर्य पर बहुत ही विचारणीय रचना प्रिय श्वेता |इसके प्रकाशन के लिए बहुत बहुत बधाई | अपनी प्रतिभा यूँ ही साबित करती रहो |सस्नेह --
पूछे धरती डर-डर पल-पल
ReplyDeleteआने वाली पीढ़ी ख़ातिर
प्रकृति उपहार तो बुन साथी?
बहुत ही सुंदर रचना, श्वेता दी।
Really very nice.
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