सुनो! अब मोमबत्तियाँ मत जलाओ
हुजूम लेकर चौराहों को मत जगाओ
नारेबाज़ी झूठे आँसुओं की श्रंद्धाजलि
इंसाफ़ के नाम पर मज़ाक मत बनाओ
जिस्म औरत का प्रकृति प्रदत्त शाप है
भोगने की लालसा खदबदाता भाप है
रौंदकर उभारों को,मार करके आत्मा
छद्म नाम की सुर्खियाँ तुम मत सजाओ
सजाकर मंदिरों में शक्ति का वरदान क्यों?
अपनी माँ,बेटी और बहन को ही मान क्यों?
औरत महज जिस्म है पापी दुष्ट भेड़ियों
ओ पशुओं मनुष्य का चेहरा मत लगाओ
बिकाऊ सूचना तंत्र का उच्च टीआर पी
राजनीति का फायदेमंद मूल एमआरपी
सुविधानुसार इस्तेमाल होती विज्ञापन
नोंच,खसोट,मौत का मातम मत मनाओ
कौन करेगा आत्मा के बलात्कार का इंसाफ़?
रौंदे गये तन-मन से मवाद रिस रहे बेहिसाब
अंधों की दरिंदगी बहरों की सियासत है
मुर्दों के शहर में ज़िंदगी की पुकार मत लगाओ
#श्वेता सिन्हा
मुर्दों के शहर में
ReplyDeleteज़िंदगी की
पुकार मत लगाओ
इतना काफी है
रोने के लिए
सादर...
इस रचना के एक-एक शब्द/पंक्ति इस समाज की स्थिति को बयाँ कर रही है।
ReplyDelete"अपनी माँ,बेटी और बहन को ही मान क्यों?"
यह पंक्ति तो तात्कालिक समय में एक कड़वी सच्चाई है...इसे कोई झूठला नहीं सकता।
यह एक क्रांतिकारी रचना है.....
ताजातरीन शर्मनाक दुर्घटना पर तंज कसती, गुहार लगाती आपकी रचना में गुबार,ललकार,चीत्कार,चुनौती .. बेचारगी, दरिंदगी .. सब कुछ है।
ReplyDelete"सुनो! अब मोमबत्तियाँ मत जलाओ
हुजूम लेकर चौराहों को मत जगाओ
नारेबाज़ी झूठे आँसुओं की श्रंद्धाजलि
इंसाफ़ के नाम पर मज़ाक मत बनाओ" ...
आप सोचो ना जरा कि अगर सेल्फ़ी ले कर समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, एलक्ट्रोनिक मिडिया में ना चमकाना हो तो लोग भरी दुपहरी में मोमबत्तियाँ जलाने का स्वांग भी ना करें। आज तक ये बात मुझ 'स्टुपिड' को नहीं समझ में आई कि उस 'कैंडल मार्च' से किसका घर रौशन होता है !???
आपकी एक पंक्ति पर आपत्ती है हमारी ...
"जिस्म औरत का प्रकृति प्रदत्त शाप है"
कभी नहीं ...औरत जब स्वयं सृष्टि रचने वाली प्रकृत्ति का रूप है तो शाप कैसे हो सकती है भला !?
ये तो बस तथाकथित पुरुष-प्रधान समाज की'भुआ' लगी मानसिकता भर है। आपकी इस पंक्ति ने एक जमाने के विज्ञापन की याद ताज़ा करा दी ..."वरदान जब बन जाए अभिशाप"..आज औरत के लिए भी वही विज्ञापन चरितार्थ हो रहा है....
Bahut hi vicharniy aur marmik rachna ... Satya ka darpan dikhati ...nishabd karti ...naman aap ki kalam ko
ReplyDeleteमुर्दों के शहर में
ReplyDeleteनारेबाजी झूठे आसुओं की श्रद्धांजलि
इंसाफ के नाम पर मजाक बनाओ मत
स्वेता जी आपकी रचना में आक्रोश और एक औरत होने का दर्द चरितार्थ हो रहा है नमन स्वेता जी
असरदार कटाक्ष. वाह.
ReplyDeleteबधाई.
बेहद विचारोत्तेजक रचना
ReplyDeleteआज के कटुतम सत्य को उकेरती हुई
सादर
जिस्म औरत का प्रकृति प्रदत्त शाप है
ReplyDeleteभोगने की लालसा खदबदाता भाप है
रौंदकर उभारों को,मार करके आत्मा
छद्म नाम की सुर्खियाँ तुम मत सजाओ
सही कहा यौवनावस्था की देहलीज पर कदम रखते ही भूखी नोंचती नजरों का सामना करते हुए अपनी देह अभिशाप ही तो लगती है औरत को....
बहुत ही विचारोत्तेजक दमदार मन के आक्रोश को व्यक्त करती लाजवाब प्रस्तुति...
कौन करेगा आत्मा के बलात्कार का इंसाफ़?
ReplyDeleteरौंदे गये तन-मन से मवाद रिस रहे बेहिसाब
अंधों की दरिंदगी बहरों की सियासत है
मुर्दों के शहर में ज़िंदगी की पुकार मत लगाओ
अनुत्तरित प्रशन और सार्थक रचना !! कौन इन जख्मों का हिसाब देगा ?
कौन करेगा आत्मा के बलात्कार का इंसाफ़?
ReplyDeleteरौंदे गये तन-मन से मवाद रिस रहे बेहिसाब
अंधों की दरिंदगी बहरों की सियासत है
मुर्दों के शहर में ज़िंदगी की पुकार मत लगाओ। बेहद हृदयस्पर्शी प्रस्तुति