लच्छेदार बातों के सुंदर खोल में बसा
आधुनिक युग की बेटियों का संसार
मुट्ठीभर प्रगतिशील बेटियों से हटाकर आँखें
कल्पनाओं के तिलिस्म के बाहर
अक़्सर जब यथार्थ की परतों में झाँकती हूँ
तो पूछती हूँ यह प्रश्न स्वयं से
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?
आज भी तो नवजात बिटिया के
जन्म पर,भविष्य के भार से
काँपते कंधों को संयत करते
कृत्रिम मुस्कान से सजे अधरों और
सिलवट भरे माथे का विरोधाभास लिये
"आजकल बेटियाँ भी कम कहाँ है"
जैसे शब्दांडबर सांत्वना की थपकी देते
माँ-बाबू पर दया दृष्टि डालते परिजन की
"लक्ष्मी आई है"के घोष में दबी फुसफुसाहटें
खोखली खुशियाँ अक्सर पूछती हैं
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?
देखा है मैंने
दिन-रात की मनौतियों
देवता -पित्तर से बेटे के
आशीष की गुहार में
अनचाही उगी बेटियाँ
बाप-भाई के दूध-बताशे के कटोरे में
पानी में भीगी
बासी रोटियाँ खाकर तृप्त
खर-पतवार-सी बढ़ती जाती हैं
पढ़ाई के लिए कॉपी के बचे पन्ने,
बिना कैप वाली आधी रिफिल
भैय्या का पुराना बैग सहेजती
सुनती है घर के बुज़ुर्गों से
कुछ काम-काज सीख ले...
कलैक्टर बन भी गयी तो
चूल्हा ही फूँकेंगी सुनकर सोचती हूँ
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?
आज भी तो एक लड़की के
घर से बाहर अकेले क़दम रखते ही
हर आँख तन को भेदती है
उसके कपड़े के मोटाई नापती
मुँह पर लगा क्रीम-पाउडर जाँचती
बालों की बनावट का निरीक्षण
उसकी मुस्कुराहट और हँसी का रहस्य
उसके हर एक हाव-भाव का
सूक्ष्म चारित्रिक विश्लेषण
सयानी होती बेटियों के
इर्द-गिर्द घूमती दुनिया देख
अनायास ही सोचती हूँ
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?
समाज के आइने में खड़ी
दिन-रात निहारती है
बेटों के रत्नजड़ित
आदमक़द तस्वीरों के आस-पास
बस यूँ ही खींची गयी लकीरों में
अपनी छवियों को
आज भी सीता की तरह
चारित्रिक धवलता का प्रमाण देती
द्रौपदी की तरह अपमान सहती
अहिल्या की तरह अभिशप्त होती
शंकुतला की तरह बिसराई गयी
पुरुष के आगे बेबस बेटियों को
अपने अस्तित्व के लिए
जूझती देखकर सोचती हूँ
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?
बेटियों के लिए सोच ज़माने की कभी नहीं बदली...।
#श्वेता सिन्हा
साहित्य कुंज के फरवरी द्वितीय अंक में प्रकाशित।
http://m.sahityakunj.net/entries/view/soch-zamaane-kee
समय के साथ बढ़ते मगर कुछ ओढ़ना जरूरी है। सटीक।
ReplyDeleteसादर आभार सर बहुत शुक्रिया।
Deleteसयानी होती बेटियों के
ReplyDeleteइर्द-गिर्द घूमती दुनिया देख
अनायास ही सोचती हूँ
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?
व्वाहहहह..
सादर...
जी सादर आभार सर। शुक्रिया।
Deleteसच लिख दिए हो
ReplyDeleteबिल्कुल जो घटित होता है समाज में, जो पंक्तियां बेटियों के जन्म पर काम में लायी जाती है वो केवल क्षणिक संतुष्टि देती प्रतीत होती है।
खोखली मुस्कुराहट के पीछे छुपी कुलबुलाहट को उजागर करती ये रचना प्रश्न भी करती है और जवाब भी देती है।
बेहतरीन सृजन के लिए बधाई।
आपका नई रचना पर स्वागत है 👉👉 कविता
आभारी हूँ रोहित जी..रचना पर आपकी विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया अच्छी लगी।
Deleteसादर शुक्रिया।
वाह!!श्वेता ,बेहतरीन सृजन ...। सही है सोच कहाँ बदली है ? शायद केवल शाब्दिक सोच बदली है पर यथार्थ कुछ और ही है ।
ReplyDeleteजी, सच कहा दी आपने सादर आभार दी बहुत शुक्रिया।
Deletevery beautifully written the truth of world.
ReplyDeletevery nice.
Thanku so much chandra.
Deleteबहुत ही सुंदर ढंग और बेहतरीन तरीके से उजागर किया है तुमने स्वेता बेटियों के लिए जमाने की सोंच को।
ReplyDeleteजी दीदी आप तो समझ ही रही है न।
Deleteसादर आभार आपका स्नेहाशीष बना रहे।
बहुत उम्दा
ReplyDeleteजी आभारी हूँ सादर शुक्रिया ।
Deleteश्वेता, तुमने समाज की दुखती राग पर हाथ रख दिया है.अगर कन्या-भ्रूण को गर्भ में ही समाप्त नहीं कर दिय गया तो बेटी के पैदा होने पर उल्टा तवा बजाया जाता है. सब यह कहकर दिलासा देते हैं कि अगली बार बेटा ही होगा. भारत में आज भी शकुंतला, अहल्या, सीता, द्रौपदी, यशोधरा और निर्भया बिलख रही हैं. इस समस्या का निदान भारत की किसी बेटी को ही करना होगा. घर में और समाज में उसे अपनी लड़ाई खुद लडनी होगी और जीतनी भी होगी. इस लड़ाई में खोने के लिए सिर्फ़ उसकी दासता का जंजीरें हैं और भोगने को आसमान की बुलंदी है.
ReplyDeleteजी सर आपकी सार्थक प्रतिक्रिया पाकर बहुत अच्छा लग रहा।
Deleteआज भी चंद मुट्ठीभर बेटियों को छोड़ दें तो स्थिति में खास सुधार नहीं दिखता है।
सादर शुक्रिया सर आपका आशीष सदैव अपेक्षित है।
बाप-भाई के दूध-बताशे के कटोरे में
ReplyDeleteपानी में भीगी
बासी रोटियाँ खाकर तृप्त
खर-पतवार-सी बढ़ती जाती हैं
पढ़ाई के लिए कॉपी के बचे पन्ने,
बिना कैप वाली आधी रिफिल
भैय्या का पुराना बैग सहेजती
सुनती है घर के बुज़ुर्गों से
कुछ काम-काज सीख ले...
एक कटु सत्य... सिर्फ दिखावे की मुस्कान और बधाई.....सच यही है आज भी बेटियां खरपतवार सी ....
बहुत ही लाजवाब रचना
वाह!!!
जी सुधा जी...सही कहा आपने।
Deleteसादर शुक्रिया बहुत आभारी हूँ।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०२ -११ -२०१९ ) को "सोच ज़माने की "(चर्चा अंक -३५०७) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
आभारी हूँ अनु तुूम्हारे सहयोग से ज्यादा लोग इस रचना को पढ़ पाये।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
प्रिय श्वेता , रचना के बहाने मुझे भी एक बात याद आई | जिस हॉस्पिटल में मेरे बेटे का जन्म हुआ था उसी में मैंने एक बहुत ही हृदयविदारक दृश्य देखा जिसे देख मैं बहुत दिनों तक विचलित रही | बेटे के जन्म के कुछ समय बाद ही मेरे पास वाले बिस्तर पर एक महिला भी लेटी थी | महिला को एक नर्स एक बड़े सी प्लेट में कुछ देकर गयी | मैंने देखा वह एक अजन्मी बेटी थी जिससे उस महिला ने जन्म से पहले ही मुक्ति पा ली थी | गले में बाहें लपेटे वह बेटी सुकून की नींद सो रही थी , सांवली रंगत की मोटी मोटी आँखों वाली वह नन्ही परी अगर जीती तो आज मेरे बेटे से कुछ ही छोटी बाईस साल की होती |उसे मैं कभी भूल नहीं पाती | ये उन दिनों की बात है जब बसों , चौराहों और हर गली कूचे में लडकी या लडका के पोस्टर लगे होते थे | आज सोचती हूँ तो सरकार की उस उदासीनता पर दुख और क्षोभ होता है | अगर सरकार ने उन दिनों उन अमानवीयता की दुकानों को शीघ्र बंद करवा दिया होता तो ना जाने कितनी बेटियों की जान बच जाती | खैर , उस महिला से मेरी सास ने पूछा तो वह बोली कि यह चौथी बच्ची थी और सास - ननद के तानों के साथ पति शराबी , जिससे उसने यही उचित समझा कि चौथी बेटी को जन्म ही ना देने दिया जाए | वह बहुत शांत थी और नर्स तो मानों इन कामों की अभ्यस्त ही थी पर मुझे महीनों उस बच्ची का चेहरा विचलित करता रहा | ये 1997 की बात है | उसके बाद ढाई साल बाद मेरी बेटी काजन्म हुआ तब मुझे कुछ संतोष हुआ | मै बेटी को ईश्वर का अनमोल उपहार मानती हूँ |आज भी सचमुच एक लडकी के लिए बहुत कुछ नहीं बदला है | दुनिया की बेधती नजरों का सामना करती और घर- समाज में भेदभाव सहती बेटियां कब इन पूर्वाग्रहों से मुक्त हो आराम से जी पाएंगी पता नहीं पर ऐसे भी लोग हैं जो बिना किसी भेदभाव के बेटियों को उनका हक दे रहे हैं | बस वही आशा की एक किरण हैं |
ReplyDeleteजी दी, ऐसे संस्मरण मन को व्यथित करते है।
Deleteमेरी छोटी बहन के साथ हॉस्पिटल में बिताये समय ने ऐसे अनेक मार्मिक अनुभव दिये...हैं मेरी यह रचना उन्ही अनुभव का परिणाम है।
आपका स्नेहाशीष सदैव ऊर्जा से भर जाता.है।
सादर शुक्रिया दी।
आभारी हूँ दी।
ReplyDeleteआपका स्नेह मनोबल और ऊर्जा बनाये रखता है।
सादर।
माँ-बाबू पर दया दृष्टि डालते परिजन की
ReplyDelete"लक्ष्मी आई है"के घोष में दबी फुसफुसाहटें
जी हां श्वेता जी ये सब खोखली खुशियाँ ही तो है जो बरसों से लोगों ने मुहँ पर सजा रखी है
बहुत सुन्दर सत्य लेखन 👌
सत्य कहा आपने की "बेटियों के लिए सोच जमाने ने कब बदली" वो बढ़ जाती है जंगली खरपतवार की तरह उन्हें दूध दही में डूबी रोटी की जरूरत नहीं ...बना दो पुरानी साड़ियों का फ्रॉक उन्हें गोटेदार लहंगे की जरूरत नहीं.... अभी भी ऐसी सोचे गांव देहात या कहें शहरों में भी कई जगह देखने को मिलती है.. तकलीफ तो होती है बेटियों के हिस्से में ज्यादा प्यार नहीं आता पर यह भी सत्य है कि आज के समय में कई परिवार बेटियों को मान सम्मान उच्च शिक्षा और सारी चीजें मुहैया करा रहे हैं ...जो एक लड़के को दी जाती है..
ReplyDeleteआज वर्तमान में बेटियों के प्रति जो माहौल पैदा हो रहा है उन सब चीजों से थोड़ा डर लगता है वरना ऐसे कई परिवार हैं जो बेटियों को बहुत प्यार करते हैं ...बहुत ही शानदार रचना आपने लिखिए बधाई आपको..!!
ये सच है की स्थिति ज्यादा नहीं बदली ... पर फिर भी बदलाव की बयार कहीं कहीं तो नजर आती है जो और कुछ नहीं तो आशा की एक उम्मीद तो जगाती कहीं न कहीं ... और इसी के सहारे आगे आना होगा सब को ... हर इंसान को इस बदलाव में सहभागी होना होगा ...
ReplyDeleteस्वेता दी, जैसा कि आपने कहा...देखा है मैंने
ReplyDeleteदिन-रात की मनौतियों
देवता -पित्तर से बेटे के
आशीष की गुहार में
अनचाही उगी बेटियाँ
बाप-भाई के दूध-बताशे के कटोरे में
पानी में भीगी
बासी रोटियाँ खाकर तृप्त
खर-पतवार-सी बढ़ती जाती हैं
यहीं आज भी कडवी सच्चाई हैं! बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।