सफ़र जीवन का यूँ अनवरत चलता रहा
अंधेरों में मन के विश्वास दीप जलता रहा
जख़्म छूकर पूछ बैठे चोट ये कैसे लगी?
दर्द मन का बूँद बनकर आँख से गलता रहा
राह की वीरानियाँ टोक देती पाँवों को
दो क़दम बस और कहकर बैठना टलता रहा
कह रही गवाहियाँ मंजिलें उसको मिली
चाँद-सूरज की तरह जो डूबकर उगता रहा
हार करके बैठना मत आँधियाँ पलभर की हैं
जीत उसकी ही हुई जो डग सदा भरता रहा
द्वेष मिटाता रहा मनुष्य और मनुष्यता
सृष्टि का हर एक कण बस प्रेम में पलता रहा
#श्वेता सिन्हा
बहुत उम्दा अशआर
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति
वाहः
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेखन
वाह बहुत सुंदर संकलन
ReplyDeleteWaah
ReplyDeleteवाह बेहतरीन रचना सखी
ReplyDeleteवाह बेहतरीन 👌👌👌👌
ReplyDeleteखूब 👍
ReplyDeleteवाह बहुत ही शानदार सृजन ....
ReplyDeleteराह की वीरानियाँ टोक देती पाँवों को
ReplyDeleteदो क़दम बस और कहकर बैठना टलता रहा
...वाह। बहुत खूबसूरत अशआर।
वाह वाह बहुत सुंदर आदरणीया दीदी जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर श्वेता ! बुझते हुए मन के दीपक को तुमने आशारूपी घृत से फिर भर दिया.
ReplyDeleteवाह!!श्वेता!!बहुत सुंदर सृजन । दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह वाह. अद्भुत 👌 👌 👌
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सार्थक...
लाजवाब सृजन