Thursday 21 November 2019

संस्कार संक्रमण



हाय! हम क्यों नहीं सोच रहे?
अपने भविष्य की सीढ़ियों को
अपने आने वाली पीढियों को
कैसी धरोहर हम सौंप रहे?
धर्म और शिक्षा में राजनीति
 संस्कार संक्रमण रोप रहे?

भाषाओं को पहनाकर धर्म 
अस्पृश्य बना रहे हो क्यों?
ढोंगी मानवता के रक्षक
हृदयों को बाँट रहे हो क्यों?
 समाज के स्वार्थी ठेकेदारों
क्यों विषधर खंजर घोप रहे?

आधुनिकता का भोंपू ताने
बेतुके तमाशे बेमतलब का शोर
बदलाव का क्यों भरते हैं दंभ
बाहर आ जाते मन के चोर
अपने आँगन के पौधों को
क्यों काँटों से हम तोप रहे?

मुस्तफ़ा खाँ 'मद्दाम' का 
समृद्ध उर्दू-हिंदी शब्दकोश
क्यों न हम रोक सके थे...?
'बुल्के' का रामकथा पर शोध
भाषा कल-कल बहता नीर
सरहदों में बाँध क्यों रोक रहे?

मत बनाओ नस्लों को
साम्प्रदायिकता का शिकार
संकीर्ण मनोवृत्तियों से पनपी
'कूपमंडूकता' है एक विकार
संस्कृति के नाम पर कैसी
रुग्ण मानसिकता थोप रहे?

जाने हम क्यों नहीं सोच रहे?

#श्वेता सिन्हा

24 comments:

  1. बहुत ही सार्थक अभिव्यक्ति
    बेहतरीन रचना

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    1. जी बहुत आभारी हूँ सादर शुक्रिया।

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  2. आज की पीढ़ी के दिलो-दिमाग पर अगर धर्म-मज़हब और सियासत की हुकूमत होगी तो आने वाली पीढ़ियों के दिलो-दिमाग पर शैतान की हुकूमत होगी. हम जैसा बोएँगे, वैसा ही तो काटेंगे. हम जीते जी नरक भोगेंगे और मर कर जहन्नुम जाएँगे.

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    1. जी बहुत आभारी हूँ सर...आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मनोबल बढ़ा जाती है।
      सादर शुक्रिया।

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  3. ज्वलंत प्रश्न ,सच कैसा दखवानल है, चिंगारी सुलगाने की रणनीति पर सब अपना स्वार्थ सेक रहे हैं ,देश समाज बस पतनोन्मुखी हो रहा है ।
    प्रजातंत्र के नाम पर अराजकता का खुला सर्वांग चल रहा है।
    बहुत सार्थक चिंतन देती रचना ।
    यथार्थ दर्शन करवाती ।
    पर दुखद है सब कुछ।

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    1. बहुत आभारी हूँ दी रचना के मर्म को स्पष्ट करती सुंंदर प्रतिक्रिया।
      बहुत शुक्रिया। सादर।

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  4. "...
    भाषाओं को पहनाकर धर्म
    अस्पृश्य बना रहे हो क्यों?
    ..."

    तात्कालिक परिदृश्य को देखकर सच्च में बहुत दु:ख होता है। अब आपके धर्म से तय होगा कि आप कौन-सा विषय पढ़ा सकते हो और कौन-सा नहीं।

    सार्थक एवं बेहतरीन रचना।
    आपके इस रचना से शायद उन जैसे लोगों को अपने विचार पर फिर से विचार करने का सद्बुद्धि मिले।

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    1. बहुत आभारी हूँ भाई। विस्तृत और समर्थित प्रतिक्रिया पाकर अच्छा. लगा।
      सस्नेह शुक्रिया।

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  5. श्वेता दी,आज जो कुछ हो रहा हैं सचमुच में वह नहीं होना चाहिए। आज के स्थिति पर बहुत ही सुंदर रचना।

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    1. बहुत आभारी हूँ ज्योति दीदी।
      सादर शुक्रिया।

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  6. मत बनाओ नस्लों को
    साम्प्रदायिकता का शिकार
    संकीर्ण मनोवृत्तियों से पनपी
    'कूपमंडूकता' है एक विकार
    संस्कृति के नाम पर कैसी
    रुग्ण मानसिकता
    शत प्रतिशत सही...

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    1. बहुत बहुत आभारी हूँ सर आपकी प्रतिक्रिया का आशीष मिला।
      सादर शुक्रिया।

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  7. भाषाओं को पहनाकर धर्म
    अस्पृश्य बना रहे हो क्यों?
    ढोंगी मानवता के रक्षक
    हृदयों को बाँट रहे हो क्यों?
    समाज के स्वार्थी ठेकेदारों
    क्यों विषधर खंजर घोप रहे? सटीक प्रस्तुति

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    1. बहुत आभारी हूँ अनुराधा जी।
      सादर शुक्रिया।

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  8. वाह!श्वेता ,वर्तमान स्थिति को बहुत सुंदरता से उकेरा है आपकी कलम नें !भाषा, जाति ,धर्म के नाम पर कुछ स्वार्थी समाज के ठेकेदार कटुता के बीज बो रहे हैं ।

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    1. बहुत बहुत बारी हूँ दी।
      सादर शुक्रिया।

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  9. वाह श्वेता।आनेवाली पीढ़ियों को हम अपनी संकीर्ण विचारों सोचों और बदलावों का झूठा जामा पहनाना चाहते हैं उसका दुष्प्रभाव उनके जीवन पर पड़ सकती है। हमें जाति धर्म भाषा इत्यादि से अलग हटकर सोंचा होगा।इन भावों को उकेरती बेहतरीन रचना।

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    1. जी दी बहुत बहुत आभारी हूँ सादर शुक्रिया।
      आशीष बनाये रखें।

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  10. Urdu become muslim dharmas' language
    Hindi or Sanskrit only for Hindus.
    Punjabi known as Sikh dharma related. And list is so far....

    How fool we are!!
    Only language which has neither range nor boundary. But we never never try to know that. Poltician, they make us misguided and no doubt they succeed in dividing people without much effort.

    Mind blowing poem.

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    1. सटीक विस्तृत विश्लेषण किया है आपने...।
      बहुत आभारी हूँ सादर शुक्रिया।

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  11. सुन्दर प्रस्तुति...

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    1. जी आभारी हूँ। सादर शुक्रिया।

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  12. आभारी हूँ कुलदीप जी।
    सादर शुक्रिया।

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  13. बहुत आभारी हूँ प्रिय सस्नेह शुक्रिया।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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