चित्र:साभार गूगल
(१)★★★★★★
अपनी जड़ों में
वापस लौटने का,
स्वप्न परों में बाँधे
आते हैं परदेशी
नवजीवन की चाह में
आस की डोरी थामे
नगर,महानगर
नदी,पोखरा
सात समुंदर पार से
सरहद विहीन
उन्मुक्त नभ की
पगडंडियों में
हवाओं की मौन ताल पर
थिरकते
इंद्रधनुषी धूप की
रेशमी जाल कुतरते
कतारबद्ध,अनुशासित
दाना-पानी की
टोह में प्रकृति के सुरम्य
गोद में उतरते हैं
ऋतुओं की डोली से
प्रतिवर्ष असंख्य
परदेशी पाहुन...।
मेघदूत बने
अनगिनी,अनसुनी,अनदेखी
कहानियों की पुर्ज़ियाँ ....
बर्फीली वादियों की,
हँसते श्वेत फूलों की,
बादलों के चादर ताने सोये
शर्मीले चंदा की,
शर्मीले चंदा की,
सजग सीमा प्रहरियों के
डबडबायी आँखों की,
अनगिनत संदेशों के लिफ़ाफ़े
अपने चोंच में दबाये
अबूझ बोलियों में
सुनाकर,बाँटकर आँसू
मुसकान देने आते हैं
परदेशी पाहुन।
(२)★★★★★★★★
इस बार भी
अपनी यादों में
एक मदहोश मौसम
की खुशबू बसाये
प्रवासी उत्सुकता में
आये हैं मिलने,सुनने-सुनाने
यात्रा-विवरण
मिलकर अपने
चिरपरिचित मित्रों से
पेड़ों,झुरमुटों,पर्वतों
घाटियों,नदियों से...
सुनाने झीलों को साइबेरियाई गीत...
उत्साह में चहचहाते,किलकते
हज़ारों मील की
थकान बिसराये
प्रवेश करते हैं शहरों की
सीमाओं में
दमघोंटू धुँध में...
परपराती आँखों
जलते कलेजे से घबराये
सुस्ताने की चाह में
ढूँढते अपने वृक्ष मित्रों को,
समतल होते
पर्णहीन पर्वत शिखरों के
टूटे पाषाण के टुकड़े हताशा से निहारते,
ठूँठ वनों की दुर्दशा का
क्षोभ नन्हें हृदय में समेटे,
छुई-मुई-सी
नदियों की तट पर ठिठके,
अपनी प्रिय झील की
बाहों में आकर चैन मिला
राह की भयावह कटु स्मृतियों की
वेदना बिसरा देना चाहते थे
झील की मेहमाननवाज़ी में
उछलते-कूदते,शोर मचाते
चक्ख़ते ही भोजन-पानी
"एवियन बॉटुलिज्म" का शिकार
सुस्त पड़कर,ऐंठकर
पटपटाकर मौत की आग़ोश में
सो गयें।
निर्दोष,निर्मल झील
मनुष्य के कर्मों के द्वारा शापित
होकर मौन पीड़ा सहती
अपने मासूम,निरीह परदेशी पाहुनों के
बेजान देह लिये पथराई
सामूहिक हत्या का दोष
कलंकित आतिथ्य
का बोझ आजीवन ढोने को
का बोझ आजीवन ढोने को
मजबूर हैं।
#श्वेता
कब से जाल बिछाए, बैठे हम सब,
ReplyDeleteअब फिर मत आना, परदेसी पंछी !
आभारी हूँ सर। सादर शुक्रिया।
Deleteआह! अतिसुंदर रचना��
ReplyDeleteआभारी हूँ चंचल जी। आपका स्वागत है।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
निर्दोष,निर्मल झील
ReplyDeleteमनुष्य के कर्मों के द्वारा शापित
होकर मौन पीड़ा सहती
अपने मासूम,निरीह परदेशी पाहुनों के
बेजान देह लिये पथराई
सामूहिक हत्या का दोष
कलंकित आतिथ्य
का बोझ आजीवन ढोने को
मजबूर हैं।
गहन सोच। आपकी व्यापक दृष्टि का परिचय देती गजब की पंक्तियाँ। मानो सजीव है शब्द शब्द। मूक पाखियों का दर्द मानव समझकर भी अनजान और नासमझ सा बन अपने स्वार्थ के रास्ते बढ़ता चला जा रहा है....
बहुत दिनों बाद आपकी प्रतिक्रिया पाकर लगा कुछ सार्थक लिख पायी हूँ।
Deleteबहुत आभारी हूँ दी सादर शुक्रिया दी।
बहुत शानदार 👌👌👌
ReplyDeleteआभारी हूँ प्रिय नीतू। शुक्रिया सस्नेह।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (25-11-2019) को "कंस हो गये कृष्ण आज" (चर्चा अंक 3530) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं….
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
जी आभारी हूँ शुक्रिया। सादर।
Deleteपरदेसी पंच्छी क्या जाने कुटिल इंसान के मन में क्या है ...
ReplyDeleteएक ऐसा सच लिखा है आपने जो सोचने पर मजबूर कर दे ... मूक पंछियों का क्या दोष ... कब से चल कर कब पहुन्चिंगे और आ कर भी क्या यही होना है उनके साथ ... काश इंसान समझ सके ...
जी सर आभारी हूँ विषयक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया।
Deleteसादर।
सुंदर दृश्य को लाल खूनी करना हम सिख चुके हैं।
ReplyDeleteहम शुद्ध निर्दोष हत्यारे हैं
हम हमारी करतूतों से मार देते है कइयों को और दोष उन्हीं के दाने पानी पर लगा देते हैं।
कितने चालाक हो गए हैं ना हम लोग!!?
पसीजता है हृदय तो निकलते हैं ऐसे शब्द।
उत्तम कृति।
जी आभारी हूँ भाई शुक्रिया।
Deleteसादर।
बहुत ही बेहतरीन रचना 👌👌👌👌
ReplyDeleteजी आभारी हूँ अनुराधा जी शुक्रिया।
Deleteसादर।
अति सुन्दर भाव संयोजन । बहुत सुन्दर सृजन श्वेता 👌👌
ReplyDeleteजी आभारी हूँ दी शुक्रिया।
Deleteसादर।
मूक प्राणियों पर दोनों भावपूर्ण काव्य चित्र अत्यंत मार्मिक हैं प्रिय श्वेता | इतनी संख्या में हमारे देश में आकर इन अबोल प्राणियों का मारा जाना बहुत दुखद है | समसामयिक रचना जो भीतर अनगिन सवालों को जन्म देती है | सस्नेह --
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