Wednesday, 18 December 2019

मौन हूँ मै


हवायें हिंदू और मुसलमान हो रही हैं,
मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही हैं।
मेरी वैचारिकी तटस्थता पर अंचभित
जीवित हूँ कि नहीं साँसें देह टो रही हैं।

धमनियों में बहने लगा ये कौन-सा ज़हर,
जल रहे हैं आग में सभ्य,सुसंस्कृत शहर,
स्तब्ध हैं बाग उजड़े,सहमे हुये फूल भी
रंजिशें माटी में बीज लहू के बो रही हैं।

मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही हैं।

फटी पोथियाँ टूटे चश्मे,धर्मांधता के स्वप्न हैं,
मदांध के पाँवों तले स्वविवेक अब दफ़्न है,
स्वार्थी,सत्ता के लोलुप बाँटकर के खा रहे
व्यवस्थापिका काँधे लाश अपनी ढो रही है।

मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही है।

पक्ष-विपक्ष अपनी रोटी सेंकने में व्यस्त हैं,
झूठ-सच बेअसर आँख-कान अभ्यस्त हैंं,
बैल कोल्हू के,बुद्धिजीवी वर्तुल में घूमते
चैतन्यशून्य सभा में क़लम गूँगी हो रही है।

मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही है।

दलदली ज़मीं पे सौहार्द्र बेल पनपते नहीं,
राम-रहीम,खेल सियासती समझते नहीं,
मोहरें वो कीमती बिसात पर सजते रहे
तमाशबीन इंसानियत पलकें भीगो रही है।

मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही है।

खुश है सुख की बेड़ियाँ बहुत प्यारी लगे,
माटी की पुकार मात्र समय की आरी लगे,
तहों दबी आत्मा की चीत्कार अनसुनी कर
ओढकर जिम्मेदारियाँ चिंगारी राख हो रही है।

मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही है।

#श्वेता

14 comments:

  1. बहुत शानदार अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (19-12-2019) को      "इक चाय मिल जाए"   चर्चा - 3554    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  3. आत्मा ईमान खो रही है
    वाह

    ReplyDelete
  4. नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 19 दिसंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    1616...मत जलाओ सरकारी या निजी सम्पत्तियाँ

    ReplyDelete

  5. दलदली ज़मीं पे सौहार्द्र बेल पनपते नहीं,
    राम-रहीम,खेल सियासती समझते नहीं,
    मोहरें वो कीमती बिसात पर सजते रहे
    तमाशबीन इंसानियत पलकें भीगो रही है।
    बहुत सार्थक सृजन प्रिय श्वेता |समसामयिक और सटीक |

    ReplyDelete
  6. सुंदर शब्द शिल्प, भावप्रद रचना.

    ReplyDelete
  7. शानदार रचना 👌👌👌

    ReplyDelete
  8. वाह!!श्वेता ,बेहतरीन भावाभिव्यक्ति !👍

    ReplyDelete
  9. एक आत्मा की पुकार ,सच कहा आपने ,आत्मा अधीर हो ही रही हैं। बेहतरीन अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  10. बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  11. देश और समाज में अभी जो दावानल धधक रहा है, उस पर आपने आहत हृदय की फरियाद रखी है ,जो सचमुच आज की जरूरत है ,काश आज संवेदनाएं यूं दम न तौड रही होती ,
    हां कवि तेरी कविता रो रही है ,।हां वो कटघरे के सामने खड़े होकर हर एक को दोषी समझ रही है , खुद को भी, कि क्या वो अपना धर्म निभा रही हैं ।
    खैर आपकी रचना निसंदेह एक प्रतिमान स्थापित कर रही है ,काश इसे असंवेदनशील हो रहा समाज पढ़े और समझें।
    एक उच्च स्तरीय सृजन।

    ReplyDelete
  12. श्वेता दी, सच में आज के जो हालात हैं दिमाग सुन्न हो गया हैं। ये क्या हो रहा हैं मेरे देश में? सच में मौन ही हूं मैं। बहुत सुंदर रचना।

    ReplyDelete
  13. सामयिक और सार्थक सोच ...
    पर बहुत सी बातें बता रही हैं की समय पे समस्याओं का समाधान खोजना जरूरी है ... टाल देने से समस्या ख़त्म नहीं होती ... जितना जल्दी हो उससे सामना करना चाहिए ...

    ReplyDelete
  14. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 28 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...