चित्र: मनस्वी प्रांजल
धान ,गेहूँ,दलहन,तिलहन
कपास के फसलों के लिए
बीज की गुणवत्ता
उचित तापमान,पानी की माप
मिट्टी के प्रकार,खाद की मात्रा
निराई,गुड़ाई या कटाई का
सही समय
मौसम और मानसून का प्रभाव
भूगोल की किताब में
पढ़ा था मैंने भी
पर गमलों में पनपते
बोनसाई की तरह जीने की
विवशता ने
सीमित कर दिया
अर्जित ज्ञान।
मौसम की बेरुख़ी
साहूकार,
भूख, मँहगाई,
अनवरत, अनगिनत
साज़िशों से
रात-दिन लड़ते
आत्मसम्मान गिरवी रखते
अन्नदाताओं की
अनगिनत कहानियाँ
पढ़-सुनकर निकली
आह!!
प्रेम कथाओं से अटी
किताब की अलमारी में
नीचे दबती गयी...
तिलिस्मी, कल्पनाओं में
विचरती
अहसास की तितलियाँ
ज्यादा सुखद लगी।
आज़ादी के बाद
अनगिनत सरकारी
योजनाओं की घोषणाओं
के पश्चात भी
कृषि और कृषकों की
दयनीय दशा की तस्वीर
'बैल से ट्रैक्टर'
'साहूकार से बैंक'
मात्र इतनी ही बदली,
मजबूर कृषकों की
मज़दूरी की विवशता,
आत्महत्या की संख्या में बढ़ोतरी,
खेतीहर भूमि पर पनपते
विषैला धुँआ उगलते उद्योग,
बिचौलियों और पूंजीपतियों का
बढ़ता वर्चस्व
संज्ञाशून्य होकर
पढ़ती रही,देखती रही...
देश के विकास के
कानफोड़ू नारों से
भावनाएँ पथराकर
तटस्थता में परिवर्तित होकर
वैचारिकी उर्वरता सोख़ चुकी थी।
बदलते परिदृश्य में
अनाज़ की पोटली बाँधे
हक़ की बात पर
लाव-लश्कर के साथ
गाँव से राजधानी की ओर
कूच करते कुछ खास
प्रदेशों के समृद्ध अन्नदाता
संगठित,ओजपूर्ण
जोशीले, जिद्दी और
सजग हैं, उनके तेवर
हाशिये पर पड़े प्रदेशों के
मरियल, मिमियाते
हालात की पहेलियों में
उलझे गरीब,मजबूर किसानों से
बिल्कुल नहीं मिलते
एक भिन्न रूप,
सशक्त क्रांतिकारी चिंगारी
का प्रतिनिधित्व करते
अन्नदाताओं ने
बरसों से ज़मा की गयी
अत्याचार,रोष और असंतोष
से पीड़ित,शोषित ,
माटी में दफ़न इतिहास,
पुरखों के सम्मान से रिसते घावों
को पोंछकर,
कराहती आत्माओं का
प्रतिशोध लेने की ठानी है,
सारी नीतियों, रणनीतियों
का चक्रव्यूह ध्वस्तकर
ऋणमुक्त करने का
संकल्प लिया है
पूरे अधिकार से
छीनकर अपने हिस्से
की रोटियाँ,
भर-भरकर मुट्ठियों से बीज़
खलिहानों में बिखेरकर
वो सींचना चाहते हैं
स्वस्थ अंकुरण की नयी खेप
और उगाना चाहते हैं
न सपनें नहीं,
यथार्थ में सोना,हीरा और मोती,
अपने लिए
अपने ख़ातिर,अपनों के
सुरक्षित भविष्य की
ख़ुशहाली के लिए।
हाँ, मैं किसान नहीं हूँ
नहीं समझ सकती उनके संघर्ष,
दुरूहता या जीवटता,
परिस्थितियों के आधार पर
अव्यवहारिक रूप से
मैंने पढ़ी और समझी है किसानी
पर फिर भी
मुझे बहुत फ़र्क़ पड़ता है
किसानों की गतिविधियों से
अपने-अपने
कर्मपथ के जुझारू पथिक
हैं हम दोनों ...
देश का पेट भरने वाले
किसानों की
बिरादरी से नहीं हूँ मैं
पर महसूस करती हूँ
मुझमें और उनमें है तो
अन्योन्याश्रित संबंध।
©श्वेता सिन्हा
आदरणीया मैम,
ReplyDeleteसादर प्रणाम। बहुत ही हृदय को छूने वाली और विचलित करने वाली रचना हमारे अन्नदाताओं को समर्पित।
कितनी दुख को बात है कि हमारे किसान जिन्हें अन्नदाता कहा जाता है, उन्हें अपने खाने के लिए अन्न की कमी पड़ जाती है।
आपकी रचना मन को व्यथित करती है और हमें हमारे किसानों की पीड़ा के प्रति सजग होने का संदेश भी देती है। आपका यह कहना कि हमारे और किसानों के बीच एक अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है एक चेतावनी की तरह लगती है मानों हमें सतर्क कर रही हो कि अपने अन्नदाता के जीवन के साथ खिलवाड़ न करें और एक अटल सत्य सदा के लिए मन में बैठा देती है।
आपने जब भी सामाजिक कविताएँ लिखी हैं, सदा सशक्त और संवेदनशील रचनाएँ लिखी हैं। माँ को पढ़ कर सुनाया, वे कह रहीं थी कि समाज की कुरीतियों की पीड़ा जिस प्रकार आपकी रचनाओं में नज़र आती है और आत्मा को झकझोरती है, वैसा बहुत कम रचनाओं में नज़र आता है। आपकी यह कविता पढ़ कर प्रेमचंद जी की दो बीघा ज़मीन याद आ गयी। सुंदर रचना के लिए हृदय से आभार और पुनः प्रणाम।
धान ,गेहूँ,दलहन,तिलहन
ReplyDeleteकपास के फसलों के लिए
बीज की गुणवत्ता
उचित तापमान,पानी की माप
मिट्टी के प्रकार,खाद की मात्रा
निराई,गुड़ाई या कटाई का
सही समय
मौसम और मानसून का प्रभाव
भूगोल की किताब में
पढ़ा था मैंने भी
पर गमलों में पनपते
बोनसाई की तरह जीने की
विवशता ने
सीमित कर दिया
अर्जित ज्ञान।
.... बहुत ही सारगर्भित पंक्तियाँ..किसानों के दर्द को उजागर करती कृति..।
मैंने पढ़ा और समझा है किसानी
ReplyDeleteऔर
मैं पढ़ी और समझी है किसानी
सही कौन सी पंक्ति है
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 07 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (8-12-20) को "संयुक्त परिवार" (चर्चा अंक- 3909) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
गाँवों में आधार होने के कारण किसानों की स्थिति को बेहद करीब से देखी हूँ... धंसे आँखों पीठ से चिपके पेट को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे.. मेरे दादा के पास जब उनके घरों से जेवर आते थे तो मैं फफक पड़ती थी... सदियों बीत गए .. तब से आज तक में कुछ नहीं बदलाव हुआ...
ReplyDeleteना जाने कब बदलेगी उनकी स्थिति
प्रभावशाली लेखन।
ReplyDeleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteअपने-अपने
ReplyDeleteकर्मपथ के जुझारू पथिक
हैं हम दोनों ...
देश का पेट भरने वाले
किसानों की
बिरादरी से नहीं हूँ मैं
पर महसूस करती हूँ
मुझमें और उनमें है तो
अन्योन्याश्रित संबंध।
बेहतरीन रचना...🌹🙏🌹
सशक्त क्रांतिकारी चिंगारी
ReplyDeleteका प्रतिनिधित्व करते
अन्नदाताओं ने
बरसों से ज़मा की गयी
अत्याचार,रोष और असंतोष
से पीड़ित,शोषित ,
माटी में दफ़न इतिहास,
पुरखों के सम्मान से रिसते घावों
को पोंछकर,
कराहती आत्माओं का
प्रतिशोध लेने की ठानी है,
सारी नीतियों, रणनीतियों
का चक्रव्यूह ध्वस्तकर
ऋणमुक्त करने का
संकल्प लिया है
बेहद हृदयस्पर्शी रचना श्वेता जी।
मौसम और मानसून का प्रभाव
ReplyDeleteभूगोल की किताब में
पढ़ा था मैंने भी
पर गमलों में पनपते
बोनसाई की तरह जीने की
विवशता ने
सीमित कर दिया
अर्जित ज्ञान।
मौसम की बेरुख़ी
साहूकार,
भूख, मँहगाई,
अनवरत, अनगिनत
साज़िशों से
रात-दिन लड़ते
आत्मसम्मान गिरवी रखते
अन्नदाताओं की
अनगिनत कहानियाँ
पढ़-सुनकर निकली
आह!!
श्वेता जी आपके द्वारा रचित सुंदर,सरल और सहज कविता निश्चय ही हृदय को स्पर्श करती है।
बहुत सुन्दर और सटीक
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteअनाज़ की पोटली बाँधे
ReplyDeleteहक़ की बात पर
लाव-लश्कर के साथ
गाँव से राजधानी की ओर
कूच करते कुछ खास
प्रदेशों के समृद्ध अन्नदाता
संगठित,ओजपूर्ण
जोशीले, जिद्दी और
सजग हैं, उनके तेवर
हाशिये पर पड़े प्रदेशों के
मरियल, मिमियाते
हालात की पहेलियों में
उलझे गरीब,मजबूर किसानों से
बिल्कुल नहीं मिलते
जी सही कहा मैं भी इसी दुविधा में हूँ अभी कुछ वीडियो में देखा ये किसान काजू किशमिश बाँट रहे हैं अगर ये गरीब किसान हैं तो......?
मुझे बहुत फ़र्क़ पड़ता है
किसानों की गतिविधियों से
अपने-अपने
कर्मपथ के जुझारू पथिक
हैं हम दोनों ...
बहुत सटीक ......सार्थक एवं विचारोत्तेजक
लाजवाब सृजन।
आदरणीया श्वेता सिन्हा जी, किसानों की दशा और संघर्ष की सुंदर सच्ची अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteगाँव से राजधानी की ओर
कूच करते कुछ खास
प्रदेशों के समृद्ध अन्नदाता
संगठित,ओजपूर्ण
जोशीले, जिद्दी और
सजग हैं, उनके तेवर
हाशिये पर पड़े प्रदेशों के
मरियल, मिमियाते
हालात की पहेलियों में
उलझे गरीब,मजबूर किसानों से
बिल्कुल नहीं मिलते
--ब्रजेन्द्रनाथ
मर्मस्पर्शी एवं सत्यपरक सृजन ।
ReplyDeleteविचारों की गहन अहिव्यक्ति है ये रचना ...
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