पकड़ती हूँ कसकर
उम्र की उंगलियों में
और फेंक देती हूँ
गहरे समंदर में
ज़िंदगी के
जाल एक खाली
इच्छाओं से बुनी..
तलाश में
कुछ खुशियों की।
भारी हुई-सी जाल
निकालती हूँ जब
उत्सुकतावश,
आह्लाद से भर
अक़्सर जाने क्योंकर
फिसल जाती हैं
सारी खुशियाँ।
और .. रह जाती हैं
अटकी हथेलियों में
दुःख में डूबी
सच्चाईयों की
चंद किलसती मछलियाँ।
स्मृतियाँ तड़पती आँखों,
व फूलती साँसों की
छप-सी जाती हैं
मासूम हृदय पर।
यातना के धीपाये हुए
सलाखों के
गहरे उदास निशां में
ठहर जाती है लय
मन के स्फुरण की।
#श्वेता सिन्हा
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत ख़ूब ..सुंदर अभिव्यक्ति ..।
ReplyDeleteक्या खूब लिखा है आपने इन चंद पंक्तियों में। ।।।।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 10 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteभारी हुई-सी जाल
ReplyDeleteनिकालती हूँ जब
उत्सुकतावश,
आह्लाद से भर
अक़्सर जाने क्योंकर
फिसल जाती हैं
सारी खुशियाँ।
और .. रह जाती हैं
अटकी हथेलियों में
दुःख में डूबी
सच्चाईयों की
चंद किलसती मछलियाँ।
खुशियां जब स्मृति पटल से भी बहुत दूर कहीं गुम सी हो जाती है तब भावनाओं के इस समुन्दर में कितनी गहराई तक जाल फेंकने पर भी यादों में किलसती मछलियाँ ही हाथ आती हैं....
अद्भुत एवं लाजवाब सृजन।
गज़ब
ReplyDeleteअद्धभुत
उम्दा लेखन
पकड़ती हूँ कसकर
ReplyDeleteउम्र की उंगलियों में
और फेंक देती हूँ
गहरे समंदर में
ज़िंदगी के
जाल एक खाली
इच्छाओं से बुनी..
तलाश में
कुछ खुशियों की।
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ...
हृदयस्पर्शी....
बेहद दिलचस्प
ReplyDeleteबेहतरीन रचना।
ReplyDeleteअक़्सर जाने क्योंकर
ReplyDeleteफिसल जाती हैं
सारी खुशियाँ।
बहुत बहुत सराहनीय
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन श्वेता आपका! मन की अथाह गहराईयों से जैसे कुछ प्रतिध्वनित हो रहा हो,बस नैराश्य की तरफ भाव कुछ मन को विचलित कर गये।
ReplyDeleteसदा खुश रहें सपरिवार।
बहुत लाजवाब रचना ...
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