पकड़ती हूँ कसकर
उम्र की उंगलियों में
और फेंक देती हूँ
गहरे समंदर में
ज़िंदगी के
जाल एक खाली
इच्छाओं से बुनी..
तलाश में
कुछ खुशियों की।
भारी हुई-सी जाल
निकालती हूँ जब
उत्सुकतावश,
आह्लाद से भर
अक़्सर जाने क्योंकर
फिसल जाती हैं
सारी खुशियाँ।
और .. रह जाती हैं
अटकी हथेलियों में
दुःख में डूबी
सच्चाईयों की
चंद किलसती मछलियाँ।
स्मृतियाँ तड़पती आँखों,
व फूलती साँसों की
छप-सी जाती हैं
मासूम हृदय पर।
यातना के धीपाये हुए
सलाखों के
गहरे उदास निशां में
ठहर जाती है लय
मन के स्फुरण की।
#श्वेता सिन्हा