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Wednesday, 9 December 2020

लय मन के स्फुरण की

पकड़ती हूँ कसकर 
उम्र की उंगलियों में
और फेंक देती हूँ 
गहरे समंदर में 
ज़िंदगी के 
जाल एक खाली 
इच्छाओं से बुनी..
तलाश में
कुछ खुशियों की।

भारी हुई-सी जाल 
 निकालती हूँ जब 
उत्सुकतावश,
आह्लाद से भर  
अक़्सर जाने क्योंकर
फिसल जाती हैं 
सारी खुशियाँ।
और .. रह जाती हैं
अटकी हथेलियों में  
दुःख में डूबी 
सच्चाईयों की
चंद किलसती मछलियाँ।

स्मृतियाँ तड़पती आँखों, 
व फूलती साँसों की 
छप-सी जाती हैं
मासूम हृदय पर।
यातना के धीपाये हुए 
सलाखों के
गहरे उदास निशां में
ठहर जाती है लय
मन के स्फुरण की।

#श्वेता सिन्हा


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मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...