उड़ती गर्द में
दृश्यों को साफ देखने की
चाहत में
चढ़ाये चश्मों से
अपवर्तित होकर
बनने वाले परिदृश्य
अब समझ में नहीं आते
तस्वीरें धुंधली हो चली है
निकट दृष्टि में आकृतियों की
भावों की वीभत्सता से
पलकें घबराहट से
स्वतः मूँद जाती हैं,
दूर दृष्टि में
विभिन्न रंग के
सारे चेहरे एक से...
परिस्थितिनुरूप
अलग-अलग समय पर
अलग-अलग
कोणों से
खींची तस्वीरों को
जोड़कर प्रस्तुत की गयी
कहानियों से
उत्पन्न मतिभ्रम
पीड़ा का
कारण बन जाता है।
सोचती हूँ
भ्रमित लेंस से बने
चश्मे उतार फेंकना ही
बेहतर हैं,
धुंध भरे दृश्यों
से अनभिज्ञ,
तस्वीरों के रंग में उलझे बिना,
ध्वनि,गंध,अनुभूति के आधार पर
साधारण आँखों से दृष्टिगोचर
दुनिया महसूसना
ज्यादा सुखद एहसास हो
शायद...।
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#श्वेता सिन्हा
२८ जनवरी २०२१
बहुत सुन्दर विश्लेषण।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 29 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteभ्रमित लेंस से बने चश्मे उतार फेंकना ही बेहतर हैं श्वेता जी । मतिभ्रम वास्तव में ही पीड़ा का कारण बन जाता है । धूप में निकलो, घटाओं में नहाकर देखो; ज़िंदगी क्या है, किताबों को हटाकर देखो । सार्थक अभिव्यक्ति के लिए अभिनंदन आपका ।
ReplyDeleteसाधारण आंखों से...शायद नहीं यकीनन सुखद अहसास है ।
ReplyDeleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteदृष्टिकोण बदलते ही दृष्टि बदल जाती है | मतिभ्रम होना भी नजरिये के असंतुलन का परिचायक है | चिंतनपरक और संवेदनशील रचना प्रिय श्वेता | सस्नेह हार्दिक शुभकामनाएं|
ReplyDeleteबहुत ही सारगर्भित विषय का बारीक चिंतन..सुन्दर कृति..श्वेता जी..
ReplyDeleteसच कहा श्वेता ये दिशा और मनोदशा दोनों को भ्रमित करते लैंस चढ़े हैं आँखों पर ,पर इन्हें उतार फैंकना भी कितना मुश्किल है काश हमारे पास भी सूर जैसी दृष्टि होती।
ReplyDeleteशानदार सृजन ने मन मोह लिया ।
सस्नेह साधुवाद।
बहुत बहुत सुदर सराहनीय
ReplyDeleteअच्छी कविता |आपको बधाई और हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteअवास्तविक जगत से वास्तविक जगत की ओर ले जाती आपकी कविता बहुत अच्छी और सुंदर है..धन्यवाद आपका इतना सुंदर सृजन करने के लिए..
ReplyDeleteVery beautiful composition. waah
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