साँसों की लय पर
चल रही हूँ ज़िंदगी की रगो में
पर किसी की साँसें न हो सकी।
चल रही हूँ ज़िंदगी की रगो में
पर किसी की साँसें न हो सकी।
किसी के मन की
ख़्वाहिशों की ढेर में शामिल
अपनी बारी की प्रतीक्षा में ख़ुद से बिछड़ गयी।
समय की डाल पर खिली
किसी पल पर मर मिटने को बेताब कली
मौसम की रूखाई से दरख़्त पर ही सूख गयी।
जिसकी गज़ल का
दिलकश रुमानी मिसरा होने की चाह थी
उसकी किताब में सवालों का पन्ना बन गयी।
इच्छाओं की बाबड़ी,
सतह पर तैरते अतृप्ति के दानों के दुख में
तल में भरी अनगिन खुशियों से अंजान रही।
जो मिल न सका
उसको छूने की तड़प नदी में बहाकर
अब चिड़िया हो जाना चाहती हूँ।
चाँद से कूदकर
अंधेरे में गुम होते सपनों से बेपरवाह
अब दिल के किवाड़ पर चिटकनी चढ़ाकर
गहरी नींद सोना चाहती हूँ।
#श्वेता सिन्हा
२५ नवंबर २०२१
इच्छाओं की बाबड़ी,
ReplyDeleteसतह पर तैरते अतृप्ति के दानों के दुख में
तल में भरी अनगिन खुशियों से अंजान रही।
सही व सटीक
प्रिय श्वेता, जीवन की तमाम उलझनों के बीच यदा-कदा मन ऐसी स्थिती से भी गुजरता है, जब भीतर एक विराट रिक्तता का एहसास होता है। प्राप्य से असंतुष्ट और अप्राप्य की लालसा में डोलता मन इसके सिवाय कुछ और नहीं सोच सकता। बहुत दिन बाद लिखा और खूब लिखा। विचलित मन की अधूरी कामनाओं का लेखा जोखा करतीं रचना के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं। ये पंक्तियां विशेष रूप से शानदार लगी ---
ReplyDeleteचाँद से कूदकर
अंधेरे में गुम होते सपनों से बेपरवाह
अब दिल के किवाड़ पर चिटकनी चढ़ाकर
गहरी नींद सोना चाहती हूँ।
👌👌🌷🌷❤️❤️
वाह
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteऐसी अभिव्यक्ति को कोई भावुक हृदय ही अनुभूत कर सकता है।
ReplyDeleteअभी चाँद पर हो न ..... फिर भला क्यों कूदना चाहती हो । ये कूद फाँद कर नींद नहीं आती । ज़रा चित्त स्थिर करो ..... एक लंबी साँस लो फिर देखो कैसी प्यारी नींद आती है । गहरी न आएगी समझीं ?
ReplyDeleteजब ज्यादा काम कर थकान हो जाती है तो ऐसे ही फालतू से विचार आते हैं और सुंदर क्रमबद्ध तरीके से सुंदर शब्दों में लपेट पेश कर दिए जाते हैं । और इसमें तो तुम माहिर हो ही । रचना खूबसूरत है । बस चाँद पर बैठी रहो ।
अंतरिक्ष के अनसुलझे रहस्य सी कुछ विचलित सा रहस्यमई मंथन।
ReplyDeleteश्वेता आपकी घुमावदार लेखनी शानदार व्यंजनाएं और गहन भाव हृदय को आलोडित कर देते हैं ।
लेखन अप्रतिम है पर गहन नकारात्मक भावों से ध्यान हटा लेखनी को सकारात्मक ऊर्जा से जोड़ों।
सस्नेह साधुवाद।
जीवन की सबसे बड़ी बिडंबना यही है कि हम लाख चाह कर भी अपनी सांसे किसी अपने को नहीं दे सकते
ReplyDeleteजो मिल न सका
ReplyDeleteउसको छूने की तड़प नदी में बहाकर
अब चिड़िया हो जाना चाहती हूँ।
....और चिड़ियों की चाहत का क्या? कभी कोई उनसे घौंसला टूटने और नवजात के लुट जाने का दर्द भी पूछे!!!
पर
इक सुन्दर सी रचना हेतु बधाई और शुभकामनाएं।
वाह ... कितना कुछ कह दिया इन शब्दों के माध्यम से ...
ReplyDeleteअभिव्यक्ति की पराकाष्ठ ...
लाजवाब ...
जिसकी गज़ल का
ReplyDeleteदिलकश रुमानी मिसरा होने की चाह थी
उसकी किताब में सवालों का पन्ना बन गयी।
बड़ा विचलित होता है मन आखिर सकारात्मकता लाये भी तो कहाँ से...जो सच है उसे स्वीकारने में हर्ज भी क्या है हाँ स्वीकारोक्ति भी इतनी खूबसूरत हो तो बात ही क्या...
इच्छाओं की बाबड़ी,
सतह पर तैरते अतृप्ति के दानों के दुख में
तल में भरी अनगिन खुशियों से अंजान रही।
भरी नकारात्मकता में भी जब ये पता चल ही जाय कि ये अतृप्ति के दाने ही दुख का कारण है तो तल में घुसने मे गुरेज भी क्या...
सुख आस पास ही है ये पता हो तो दुख हल्का हो जाता है
जो मिल न सका
उसको छूने की तड़प नदी में बहाकर
अब चिड़िया हो जाना चाहती हूँ।
बस फिर उड़ने से रोक ही कौन सकता है और शुरू होता है इस अभिनय का अगला पार्ट!!
बहुत ही लाजवाब एवं चिन्तनपरक सृजन।
वाह!!!!