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Saturday, 6 October 2018

जीवन रण में


 कुरुक्षेत्र के जीवन रण में
गिरकर फिर चलना सीखो 
कंटक राहों के अनगिन सह
छिलकर भी पलना सीखो

लिए बैसाखी बेबस बनकर
कुछ पग में ही थक जाओगे
हिम्मत तो करो अब पाँव तले
हर डर को तुम दलना सीखो

 पट बिन नयनों के खोले ही
कहते हो तम का पहरा है
तुम आग हो एक चिंगारी हो
जगमग-जगमग जलना सीखो

 खोना क्यों दीदा रो-रोकर
न विगत लौट फिर आयेगा
बीत रहा जो उस क्षण के
रंगों में घुल ढलना सीखो

पिघल धूप में जाते हो 
क्यों फूलों सा मुरझाते हो
सुनो मोम नहीं फौलाद बनो
नेह आँच में ही गलना सीखो

सलवटों में उमर की छुपी हुई
दबी घुटी हुई कुछ निशानियाँ 
पूरा करना हो स्वप्न अगर 
गले हौसलों के मिलना सीखो

-श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...