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Wednesday, 14 August 2019

तो क्या आज़ादी बुरी होती है?


तुम बेबाकी से 
कहीं भी कुछ भी 
कह जाते हो
बात-बात पर
क्षोभ और आक्रोश में भर
वक्तव्यों में अभद्रता की
सीमाओं का उल्लंघन करते
अभिव्यक्ति की आज़ादी
के नाम पर 
अमर्यादित बेतुकी बातों को 
जाएज़ बताते हो
किसी का सम्मान 
पल में रौंदकर 
सीना फुलाते हो
तुम आज़ाद हो,
तो क्या आज़ादी बहुत बुरी होती है?
इंसान को इंसान की बेक़द्री और
अपमान करना सिखलाती है?

अपने-अपने
धर्म और जाति का गुणगान करते
एक-दूसरे की पगड़ी तार-तार करते
अगड़ा-पिछड़ा तू-तू-मैं-मैं में
बँटे समाज की जड़ों में
नित नियम से खाद भरते
अपने धर्म की पताका
आज़ाद हवा में
सबसे ऊँची फहराने के जोश में
किसी भी हद तक गुज़रते
तुम पावन तिरंगे का 
कितना सम्मान करते हो?
ज़रा-ज़रा सी बात पर
एक-दूसरे का अस्तित्व 
लहुलुहानकर,ज़ख़्मों पर
 नमक रगड़ते नहीं लजाते हो
 तुम आज़ाद हो,
तो क्या आज़ादी बहुत बुरी होती है?
आज़ादी सांम्प्रदायिक होकर
नफ़रत और वैमनस्यता बढ़ाती है?

आज़ादी क्या सच में बहुत बुरी होती है?
इंसान को उकसाती है
ख़त्मकर भय,बेशर्म बनाती है
आज़ादी का सही अर्थ भुलाकर 
आज़ादी पर शर्मिंदा होने वालों को
औपचारिक रोने वालों को
सारे अधिकार कंठस्थ याद करवा
उनके कर्तव्यों की सूची मिटाती है
आज़ादी क्या सच में बुरी होती है?
आज़ादी की हवा ज़हरीली होती है?
घुटनभरी साँसों में छटपटाते,
उम्मीदभरी आँखों में
सुखद स्वप्न नहीं पनपते,
आज़ादी से असंतोष,दुःख,
खिन्नता,क्षोभ के
कैक्टस जन्मते है?

#श्वेता सिन्हा

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