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Friday, 22 April 2022

पृथ्वी का दुःख



वृक्ष की फुनगी से
टुकुर-टुकुर पृथ्वी निहारती
चिड़िया चिंतित है
कटे वृक्षों के लिए...।
 
धूप से बदरंग 
बाग में बेचैन,उदास तितली 
चितिंत है 
फूलों के लिए...।

पहाड़ के गर्व से अकड़े
कठोर मस्तक
चिंतित हैं
विकास के बूटों की
कर्कश पदचापों से...।

सोंधी खुशबू नभ से
टपकने की
बाट जोहती साँवली माटी 
चिंतित है
शहरीकरण के 
निर्मम अट्टहासों से...।

शाम ढले
नभ की खिड़की से
अंधेरे के रहस्यों को 
घूँट-घूँट पीता चाँद
चिंतित है
 तारों की मद्धिम होती
टिमटिमाहटों से...।

बादलों से बनी
चित्रकारी देखकर
उछल-उछल के नाचता
सुर-ताल में गुनगुनाता समुंदर
चिंतित है
नदियों के अव्यवहारिक
प्रवाहों से...।

पृथ्वी सोच रही है...,
किसी दीवार पर
मौका पाते ही पसरे
ढीठ पीपल की तरह,
खोखला करता नींव को,
बेशर्मी से खींसे निपोरता, 
क्यों नहीं है चिंतित मनुष्य
अपने क्रियाकलापों से ...?

मनुष्यों के स्वार्थपरता से
चिंतित ,त्रस्त, प्रकृति के
प्रति निष्ठुर व्यवहार  से आहत
विलाप करती
पृथ्वी का दुःख
 सृष्टि में
प्रलय का संकेत है।

-श्वेता सिन्हा


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मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...