Saturday, 1 September 2018

स्वर खो देती हूँ


पग-पग के अवरोधों से
मैं घबराकर रो देती हूँ
झंझावातों से डर-डरकर
समय बहुमूल्य खो देती हूँ

संसृति की मायावी भँवरों में
सुख-दुःख की मारक लहरों में
भ्रम जालों में उलझी-उलझी
खुशियाँ प्रायः खो देती हूँ

मैं चिड़िया हूँ बिन पंखों की
पड़ी रेत सजावटी शंखों-सी 
सागर मीठा करते-करते
अस्तित्व सदा खो देती हूँ

दिवस ताप अकुलाई-सी
निशि स्वप्न भरमाई-सी
खोया-पाया गुनते-गुनते
रस प्रेम सुधा खो देती हूँ 

क्यों तोड़ न पाती बंधन को?
सच मानूँ मिथ्या स्पंदन को
अधरों पर बंशी रखते-रखते
मैं गीत के स्वर खो देती हूँ

-श्वेता सिन्हा


14 comments:

  1. वाह बेहतरीन रचना श्वेता जी

    ReplyDelete
  2. तुम्हारे लिए अवरोध नहीं है
    तुम खुद अवरोध हो
    शायद नर प्रधान समाज की सोच
    तुच्छ है और तुम्हारी अव्व्ल।
    तुम खुद काल हो
    बाकी सब इसके समय रूपी "पल" में बंधे हैं।

    तुम खुद एक भवँर हो
    जिसकी लहरों में उलझ कर
    अभाषीय खुशी में सब खुश है।
    मगर असली आनंद तो तुम उठाती हो....

    उड़ने वाली चिड़िया जमीन पर ही घर बनाती है आखिर,
    तुम तो घाटियों की मधुमक्खी हो
    सागर का अस्तित्व महत्व का नहीं
    आम जन के लिए जितना सरिता का है।

    तुम्ही तो प्रेम हो
    फिर क्या सुधा क्या गरल
    मीरां पर्याय हैं तेरी।

    तुम खुद ही तो बंधन हो
    फिर क्यों तोड़ना है खुद को
    जो समाजी कूड़ा कर्कट समेटा है खुद में
    वो बिखेर देना चाहती हो वपिश???
    स्वर तो भ्रांति पैदा करते हैं
    तुम तो संगीत हो, झनकार हो
    जो उन्माद की उत्पत्ति का कारण है।

    ऐसी रचनाएं टिस पैदा करती है
    अति उत्तम।

    ReplyDelete
  3. क्यों तोड़ न पाती बंधन को?
    सच मानूँ मिथ्या स्पंदन को
    अधरों पर बंशी रखते-रखते
    मैं गीत के स्वर खो देती हूँ
    सटीक और सुंदर !

    ReplyDelete
  4. प्रिय श्वेता -- स्व की असहायता औरअदृश्य बन्धनों में जकड़े मन की पीड़ा को सार्थकता से उकेरती रचना बहुत ही मर्मस्पर्शी है |
    मैं चिड़िया हूँ बिन पंखों की
    पड़ी रेत सजावटी शंखों-सी
    सागर मीठा करते-करते
    अस्तित्व सदा खो देती हूँ--
    अति ऊतम काव्य शिल्प और सुकोमल शब्दावली | सस्नेह बधाई उत्तम सृजन के लिए |

    ReplyDelete
  5. वाह!!श्वेता ,बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति।
    सागर मीठा करते करते
    अस्तित्व सदा खो देती हूँ ..वाह !!क्या बात है ...!!नारी मन की पीडा ...को उकेरती बहुत सुंदर और सार्थक रचना ।

    ReplyDelete
  6. बहुत सुन्दर......, आपकी इस रचना की जितनी भी तारीफ करूं कम होगी ‌, अप्रतिम रचना ।

    ReplyDelete
  7. बेहतरीन रचना श्वेता जी

    ReplyDelete
  8. अत्युत्तम.
    अंतिम छंद सबसे खूबसूरत बन गया है.

    ReplyDelete
  9. वा...व्व...श्वेता, नारी मन की व्यथा को बहुत ही खुबसुरत तरीके से व्यक्त किया हैं!!

    ReplyDelete
  10. क्यों तोड़ न पाती बंधन को?
    सच मानूँ मिथ्या स्पंदन को

    हर शब्द में एक भाव है,बार- बार पढ़ने और उसमें से कुछ ढूंढना चाहता है यह मन

    ReplyDelete
  11. सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।

    ReplyDelete
  12. हृदय की अतल गहराइयों से निकले भाव
    उम्दा रचना

    ReplyDelete
  13. आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है. https://rakeshkirachanay.blogspot.com/2018/09/85.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
    (आपकी उपस्थिति पहले ही दर्ज हो चुकी है, विलंब से सूचना देने के लिए खेद है .)

    ReplyDelete
  14. बहुत ही सुन्दर रचना सखी

    ReplyDelete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...