हिय की हुकहुक सुन जा रे
ओ बेदर्दी मितवा मेरे
जान के यूँ अनजान न बन
ओ निर्मोही मितवा मेरे
माना कि तेरे सपनों की,
सुंदर तस्वीर नहीं हूँ मैं
कैसे हो सकती हूँ मैं भला!
राँझे की हीर नहीं हूँ मैं
जल जाऊँ बाती बनकर
मुझे दीप बना लो पूजा का
न बिसराओ अपने मन से
सुन बात मेरी मितवा मेरे
क्या तुम्हें भला दे सकती मैं?
हूँ रिक्त अंजुरी तृप्ति की
सुर सजा न पाऊँ मधुर,मदिर
गाती हूँ राग विरक्ति की
अर्ध्य बनूँ जीवन-घट का
मैं सींचूँ तेरे मनरथ को
अधर सजा मुस्कान बना
ना रुठो तुम, मितवा मेरे
है विकल हृदय की चाह मेरी
तुम देख लो दृष्टि भर मुझको
भ्रम हो तो फिर हो क्यूँ धुक-धुक?
बींधे दृग वृष्टि कर मुझको
तुम देह नहीं सुरभित मन हो
जग बंधन को जो माने न
मृग मन का चंचल समझे न
तू समुझा जा मितवा मेरे
-श्वेता सिन्हा
शुभ संध्या सखी
ReplyDeleteक्या बात है...
उम्दा रचना
सादर...
सादर आभार दी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
नेहाशीष बनाये रखे दी।
हिय की हुकहुक सुन जा रे
ReplyDeleteओ बेदर्दी मितवा मेरे
जान के यूँ अनजान न बन
ओ निर्मोही मितवा मेरे
हृदय की धड़कनों को शब्दों में पिरो दिया आपने, बेहतरीन अभिव्यक्ति
सुंदर प्रतिक्रिया लोकेश जी।
Deleteसादर आभार आपका।
हृदययल से बेहद शुक्रिया।
सुंदर भावों से सजी बेहतरीन रचना
ReplyDeleteसादर आभार अनुराधा जी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
माना कि तेरे सपनों की,
ReplyDeleteसुंदर तस्वीर नहीं हूँ मैं
कैसे हो सकती हूँ मैं भला!
राँझे की हीर नहीं हूँ मैं
जल जाऊँ बाती बनकर
मुझे दीप बना लो पूजा का
न बिसराओ अपने मन से
सुन बात मेरी मितवा मेरे
परवानों सा प्रेम...निस्वार्थ समर्पण...
बहुत ही हृदयस्पर्शी लाजवाब रचना
वाह!!!
सादर आभार सुधा जी।
Deleteकाफी समय बाद आपकी प्रतिक्रिया पाकर बहुत खुशी हुई।
सस्नेह शुक्रिया आपका।
वाह
ReplyDeleteसादर आभार सर।
Deleteअपनी ही कमियां बता कर
ReplyDeleteनिस्वार्थ व सच्चा प्रेम अभिव्यक्त करना भी एक उम्दा कला है।
जोरदार रचना
सादर आभार रोहित जी।
Deleteहृदययल से बेहद शुक्रिया।
मितवा के प्रति समर्पण को अभिव्यक्त करती सुन्दर रचना. शब्द-विन्यास ने रचना का कलापक्ष मज़बूत किया है वहीं हृदयस्पर्शी भावों ने भावपक्ष को निखार दिया है.
ReplyDeleteएक शब्द "हुकहुक" का आपने आविष्कार किया है. हिय की हूक तो प्रचलित है. "हुकहुक" ध्वनि एक ज़माने में इंज़न से चलने वाली चक्कियों के धुआँ निकासी मार्ग में उल्टा लोटा बाँधकर उत्पन्न की जाती थी ताकि दूर-दूर तक लोगों को सुनाई दे कि अब चक्की चल रही है.
अच्छा है दिल की धुक-धुक को आपने नवीनता से जोड़ा है.
रचना पाठक को माधुर्य से भर देती है. लिखते रहिये.
बधाई एवं शुभकामनायें.
रवींद्र जी आपकी ऐसी विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया अपनी रचना पर पाकर मन प्रसन्नता से भर गया।
Deleteप्रयोग से ही तो नवीन आविष्कार होते है न।
आपकी सुंदर प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ा गयी।
सादर आभार आपका।
हृदयतल से बेहद शुक्रिया।
है विकल हृदय की चाह मेरी
ReplyDeleteतुम देख लो दृष्टि भर मुझको
भ्रम हो तो फिर हो क्यूँ धुक-धुक?
.... इन पंक्तियो में आपने सारी कविता का सार लिख दिया है। बेहतरीन ...भाव और शब्दों का उत्तम प्रकटीकरण ।शुभकामनाएं ।
आदरणीय p.k ji
Deleteबहुत दिन बाद आपकी.प्रतिक्रिया का आशीष पाकर मन प्रसन्न हो गया।
सादर आभार
हृदयतल से बेहद शुक्रिया।
बेहतरीन भाव संयोजन
ReplyDeleteसादर आभार ऋतु जी
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
वाह
ReplyDeleteक्या ग़ज़ब लिखा हैं।प्रेम की पराकाष्ठा है
मुझे दीप बना लो पूजा का
सादर आभार जफ़र जी।
Deleteहृदय से आभार।
सुन्दर भाव ।
ReplyDeleteजी,सादर आभार अरुण जी।
Deleteहृदययल से शुक्रिया।
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteसादर आभार प्रिय नीतू
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
प्रेम के समर्पण को व्यक्त करती बहुत ही सुंदर रचना,श्वेता।
ReplyDeleteबेहद आभार ज्योति दी:)
Deleteहृदययल से बेहद शुक्रिया।स्नेहाशीष बना रहे आपका।
मत डुबो, इस जीवन घट में,
ReplyDeleteमन, माया की मृग तृष्णा है.
दृश्य मरीचिका!मिथ्या सब कुछ,
कर्षण ज्यों कृष्ण और कृष्णा हैं.
चलो अनंत पथिक पथ बन तुम!
जोहे बरबस बाट बाबुल डेरे.
रुखसत हो, सुन लो रूह की,
तोड़ो भ्रम जाल, मितवा मेरे!
सादर नमन आपकी रचनात्मकता को आदरणीय विश्वमोहन जी।
Deleteमेरी रचना की सार्थकता है आपकी इतनी सुंदर भावाव्यक्ति।
बहुत सुंदर पंक्तियाँ. लिख डाली आपने..शुक्रिया कहने के लिए शब्द नहीं।
स्नेहाशीष बनाये रखे यही प्रार्थना है।
हृदययल से बेहद शुक्रिया आपका।
मन के मितवा का मनुहार और प्रेम का समर्पण है इस सुंदर रचना में ... शब्दों का सुंदर तानाबाना ...
ReplyDeleteजिसके प्रेम में डूबे उसी को आग्रह ... प्रेम का अनंत सागर ...
भावपूर्ण रचना ...
सादर आभार आपका नासवा जी।
Deleteआपकी प्रतिक्रिया के आशीष सदैव ऊर्जा से भर जाते है।
बेहद शुक्रिया आपका।
sundar arthon se saji kavita
ReplyDeleteवाह,खूब कहा है !
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