Wednesday 27 March 2019

स्वयंसिद्ध

धधकते अग्निवन के 
चक्रव्यूह में समर्पित
देती रहीं प्रमाण
अपनी पवित्रता का
सीता,अहिल्या,द्रौपदी
गांधारी,कुंती, 
और भी असंख्य हैं
आज भी
युगों से जूझ रही है
भोग रही 
सृष्टि सृजनदात्री होने का दंड
आजीवन ली गयी
परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर
दिया गया है देवी का सम्मान
क्यों न ली गयी
कभी किसी पुरुष की 
अग्निपरीक्षा?
पुरुष होने मात्र से ही
चारित्रिक धवलता
प्रमाणित है शायद
स्वयंसिद्ध।


-श्वेता सिन्हा

25 comments:

  1. लाजवाब वाह वाह

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    1. जी आभारी हूँ सोलंकी जी..शुक्रिया।

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    1. आभारी हूँ लोकेश जी...शुक्रिया।

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  3. क्यों न ली गयी
    कभी किसी पुरुष की
    अग्निपरीक्षा?
    पुरुष होने मात्र से ही
    चारित्रिक धवलता
    प्रमाणित है शायद

    व्यंग्यात्मक रचना
    बेहतरीन सृजन आदरणीया

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    1. आभारी हूँ आदरणीय...शुक्रिया।

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  4. अतुलनीय.....ये प्रश्नचिन्ह शायद कभी नही हटेगा शायद आगे भी निरुत्तर ही रहेगा ये समाज
    निःशब्द करती आपकी इस रचना को कोटिशः नमन

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    1. आभारी हूँ प्रिय आँचल...बहुत शुक्रिया।

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  5. स्वघोषित परीक्षक भला बनेगा परीक्षार्थी!

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    1. जी..सारयुक्त विचार।
      आभारी हूँ विश्वमोहन जी..बहुत शुक्रिया।

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  6. सृष्टि सृजन दात्री फिर भी अग्निपरीक्षा स्वयं की कृतियों द्वारा छली गई और अग्निपरीक्षाएं देती रही, है सृजन दात्री तुम स्वयं ही स्वयं सिद्ध सुंदर विचारणीय रचना

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    1. आभारी हूँ रितु जी..बहुत शुक्रिया।

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  8. स्त्री जाति की अनन्त काल से चली आ रही व्यथा का मर्मस्पर्शी भाव लिए सुन्दर सृजन श्वेता जी ।

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  9. श्रेष्ठ रचना अति उत्तम।
    एक मन का प्रश्न मन से….
    स्व विलोपन नारी का
    बंधना स्वयं व्यंजनाओं से
    पहना हो गर्विता का गहना
    स्नेह की सांकलो में जकड़े रहना
    स्वयं सिद्ध या..... आत्म प्रवंचना।

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  11. श्वेता जी, आपकी यह रचना, पत्र में प्रकाशित होने के लिए सर्वप्रथम सादर शुभकामनाएँ।
    लाज़वाब रचना है। स्वयं को श्रेष्ठ कहने वाले मानव समाज के मुखौटे पर एक बडा़ सा प्रश्न चिह्न है यह सृजन।
    लेकिन न जाने कब समाज की, "अपनी ढपली अपना राग" वाली विचारधारा बदलेगी। हालांकि यह सामाजिक कुरीति युगों-युगों से समाज में जड़ जमाये बैठी है, फिर भी इसका भान हो पाना आसान नहीं है।
    ऐसी तेज धार वाले सृजनकार ही कुरीतियों के दलदल से बचाव हेतु कुछ कर सकते हैं।

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  12. सार्थक, गहरा प्रश्न समाज से जिसको अधिकाँश पुरुषों ने बनाया अपने स्वार्थ के लिए ... बहुत ही अच्छी रचना ..

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  13. श्वेता दी, यह सवाल तो शायद सदियों तक सवाल ही रहेगा। क्योंकि पुरुषों के बनाए समाज में पुरुष महिला को एक भोग की वस्तु ही तो समझते हैं।

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  14. बहुत ही बेहतरीन

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  15. बहुत सही जगह प्रहार किया है। बहुत खूब।

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  16. निःशब्द करती रचना

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  17. सुंदर विचारणीय रचना

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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