वे नहीं जानते हैं
सुर-ताल-सरगम के
ध्वनि तरंगों को
किसी को बोलते देख
अपने कंठ में अटके
अदृश्य जाल को
तोड़ने की बस
निरर्थक चेष्टा करते
अपनी आँखों में
समेटकर सारा अर्थ
अव्यक्त ही रख लेते
मन के अधिकतम भावों को
व्यक्त करने की
अकुलाहट में ...
जग के कोलाहल से विलग
है उनकी अपनी एक दुनिया
मौन की अभेद्य परतों में
अबोले शब्दों के गूढ़ भाव
अक़्सर चाहकर भी
संप्रेषित कर नहीं पाते
मूक-बधिर ... बस
देखकर,सूँघकर, स्पर्श कर
महसूस करते हैं जीवन-स्पन्दन
मानव मन के शब्दों वाले
विचारों के विविध रुपों से
सदा अनभिज्ञ ...बस
पढ़ पाते हैं आँखों में
प्रेम-दया-करुणा-पीड़ा
मान-अपमान की भाषा,
ये मासूम होते हैं सृष्टि के
अमूल्य उपहारों की तरह विशिष्ट,
मौन को मानकर जीवन
बिना किसी भेद के
मिलते है गले
लुटाते हैं प्रेम
आजीवन भीतर ही भीतर
स्पंदित श्वास
निःशब्द महसूस करते
स्पर्श के लय में और
धड़कनों की सुर-ताल में
समस्त संसार को।
#श्वेता सिन्हा
निःशब्द हूँ छूटकी
ReplyDeleteआभारी हूँ दी सादर शुक्रिया।
Deleteअपनी आँखों में
ReplyDeleteसमेटकर सारा अर्थ
अव्यक्त ही रख लेते
मन के अधिकतम भावों को
व्यक्त करने की
अकुलाहट में ...
एक मौन जीवन-स्पन्दन के अकुलाहट का अहसास कराती हुई रचना ... नमन इस अकुलाहट के सुर को हृदय तक स्पर्श कराने के लिए ...
जी आभारी हूँ..मन से बहुत शुक्रिया आपका।
Deleteरचना के भावों को महसूस किया आपने लेखनी सार्थक हुई।
मन को छूती अभिव्यक्ति
ReplyDelete'गिरा, अनयन, नयन, बिनु बानी'
ReplyDeleteजिसको वाणी का वरदान नहीं मिला है, वह आँखों की भाषा से सब कुछ कह लेता है. बस, हमको उसके भाव समझने की संवेदनशीलता होनी चाहिए.
वाह !अपनी आँखों में समेटकर सारा दर्द अव्यक्त ही रख लेते। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteमौन की अभेद्य परतों में
ReplyDeleteअबोले शब्दों के गूढ़ भाव
अक़्सर चाहकर भी
संप्रेषित कर नहीं पाते
मूक-बधिर ... बस
देखकर,सूँघकर, स्पर्श कर
महसूस करते हैं जीवन-स्पन्दन
मूक की व्यथा की वाणी और बधिर की श्रवण शक्ति जैसी संवेदनशीलता लिए मर्म को छूती हृदयस्पर्शी रचना प्रिय श्वेता👌👌
प्रिय श्वेता , मूकबधिर अपने आप में खोये वो प्राणी हैं , जिन्हें संसार के छल कपट नहीं आते । सृष्टि में विधाता नें इन्हे सुकोमल , निर्मल मन दिया है , जिससे वे विशिष्टतम लोगों की श्रेणि में आते हैं। संवेदनाओं को जगाती मार्मिक रचना के लिए मेरी शुभकामनायें ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (01-10-2019) को "तपे पीड़ा के पाँव" (चर्चा अंक- 3475) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मौन की अभेद परत और उस के बाद भी प्रेम के भाव को समझा सकें तो आलोकिक हो जाता है यह एहसास ...
ReplyDeleteसुन्दरता से बुने भाव ... बहुत लाजवाब ...
संवेदनाओं से भरी हृदय स्पर्शी कृति," मूक और बधिर "उनके मन के असमर्थ भावों को सुंदर शब्द दिए आपने श्वेता ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति।
अनुपम।
अनछुवा विषय ।
मूकबधिर बच्चों के साथ मेरा अक्सर मिलना जुलना रहता है।
ReplyDeleteअंध विद्यालय (श्री गंगानगर) में मेरा आना जाना है। सो आपकी ये कविता मन के बेहद करीब हो गयी। कुछ भाव मेरे भी हैं पर मैं लिख नहीं सकता।
आपके आसपास 45-45 बच्चों की क्लास होती है फिर शांति किसी सुनसान जगह सी होती है।
यही शांति आपको एकाग्रता की बजाए इधर उधर भगाती है जैसे कातिल।
बेहद हृदयस्पर्शी रचना।
पधारे शून्य पार
वाह!श्वेता ,बहुत खूब!मूक ,बधिर लोगों के मन की भावनाओं को कितनी खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है आपने ।
ReplyDeleteमूक बधिर होना एक तपस्या है जिसके फल स्वरूप नारायण इन्हें हर कलुषित भावों से मुक्त रखते हुए जीवन की सुंदर समझ देते हैं। कभी कभी लगता है कि काश ये संसार भी मूक बधिर होता तो ना कुछ बुरा बोलता ना सुनता और शायद तब एक दूसरे के भावों और पीड़ा को समझ पाता।
ReplyDeleteआदरणीया दीदी जी बहुत सुंदर सृजन,भावपूर्ण,अनुपम 👌
जहाँ एक ओर मूक बधिरों के भाव,उनकी अकुलाहट मन को छू रही वही दूसरी ओर आपकी पंक्तियाँ मानवता के नाम एक संदेश लिए बैठी है।
हृदयस्पर्शी रचना,कोटिशः नमन आपकी कलम को सादर नमन 🙏