चित्र साभार: सुबोध सर की वॉल से
वृद्ध
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बुझती उमर की तीलियाँ
बची ज़िंदगी सुलगाता हूँ
देह की गहरी लकीरें
तन्हाई में सहलाता हूँ
समय की पदचाप सुनता
बिसरा हुआ दोहराता हूँ
काल के गतिमान पल में
मैं वृद्ध कहलाता हूँ
मन की ज्योति जल रही
जिजीविषा कुम्हला गयी
पी लिया हर रंग जीवन
शिथिलता जतला गयी
ओस चखकर जी रहा
ऋतुएँ ये तन झुलसा गयीं
उलीचता अनुभव के मटके
मैं समृद्ध होता जाता हूँ
प्रकृति का नियम अटल
आना-जाना काल-चक्र है
क्या मिला क्या खो गया
पोपला.मुख पृष्ठ वक्र है
मोह-माया ना मिट सका
यह कैसा जीवन-कुचक्र है?
नवप्रस्फुटन की आस में
माटी को मैं दुलराता हूँ।
काल के गतिमान पल में
मैं वृद्ध कहलाता हूँ
#श्वेता सिन्हा
वाह आदरणीया दीदी जी
ReplyDeleteजितनी मार्मिक उतनी सुंदर पंक्तियाँ।
सच कहूँ तो आपको पढ़कर अक्सर निशब्द हो जाती हूँ फिर सोचती हूँ कि बिना कहे आप तक अपने भाव कैसे पहुँचाऊँगी।
उम्र के इस पड़ाव को और इसमें निहित भाव को बेहद उम्दा अंदाज़ में प्रस्तुत किया है आपने।
वाह
सादर नमन
बहुत बहुत उम्दा
ReplyDeleteबहुत उम्दा ...
ReplyDeleteदृश्य सामने ला खड़ा किया ...
इसके सत्य को मन ले इंसान तो बात ही क्या .. पर ये होता नहीं है ...
मन की ज्योति जल रही
ReplyDeleteजिजीविषा कुम्हला गयी
पी लिया हर रंग जीवन
शिथिलता जतला गयी
ओस चखकर जी रहा
ऋतुएँ ये तन झुलसा गयीं
उलीचता अनुभव के मटके
मैं समृद्ध होता जाता हूँ।
कितना मार्मिक और संजीव चित्रण है सच रुह तक उतरता सृजन एक बहुत पुरानी कहावत याद आ गई।
यौवन जाना जानती तो
आड़ी देती बाड़ घा
डब्बी में राखती
काढ़ती वार त्यौहार।
शानदार हृदय स्पर्शी सृजन।
वृध्दों को समर्पित भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteSunder kavita, realistic thoughts.. nice
ReplyDeleteप्रकृति का नियम अटल
ReplyDeleteआना-जाना काल-चक्र है
क्या मिला क्या खो गया
पोपला.मुख पृष्ठ वक्र है
मोह-माया ना मिट सका
यह कैसा जीवन-कुचक्र है? बहुत सुंदर और सार्थक रचना
वाह
ReplyDeleteये कालचक्र चलता रहता है ।
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