सभ्यताएँ करती हैं बग़ावत
परंपराओं की ललकार में
भूख हार मान जाती है
सोंधी माटी से तकरार में
रोटी की आस में जुआ उतार
गमछे में कुछ बाँध चबेने
गाँव शहर हो जाते हैं...।
सूनी थाली बुझती अंगीठी
कर्ज़ में डूबी धान बालियाँ
फटा अँगोछा,झँझरी चुनरी
गिरवी गोरु,बैल,झोपड़ियाँ
सपनों के कुछ बिचड़े चुनकर
नन्ही-सी गठरी बँधते ही
गाँव शहर हो जाते हैं...।
पकी निबौरी, सखुआ,महुआ
कटते वृक्ष,पठार बेहाल
ताल,पोखरा,कूप सिसकते
चिड़िया चुप,निर्जन चौपाल
कच्ची पगडंडी पर चलते
स्मृतियों की खींच लकीरें
गाँव शहर हो जाते हैं...।
माँ-बाबू के भींगे तकिये
गुड़िया ब्याहती बहन के सपने
बेगारी की बढ़ती डिग्री
बे-इलाज़ मरते कुछ अपने
अमिया चटखाते हाथों में
वक़्त घड़ी के बँधते ही
गाँव शहर हो जाते हैं...।
सूखे बबूल के काँटों में
उलझी पतंगे,आँख-मिचौली
मांदर-ढोल भूले बिरहा,चैता
टूटी आस की बँसुरी,ढफली
'प्रेमचंद',' रेणु' की चिट्ठियाँ
'गोंडवी' के संदेशे पढ़ते-पढ़ते
गाँव शहर हो जाते है....।
#श्वेता सिन्हा
उलझी पतंगे,आँख-मिचौली
ReplyDeleteमांदर-ढोल,भूल गये बिरहा,चैता
टूटी आस की मांदर,ढफली
'प्रेमचंद',' रेणु' की चिट्ठियाँ
'गोंडवी' का संदेशा पढ़ते-पढ़ते
गाँव शहर हो जाते है....।
शानदार..
बहुत खरी खरी बातें बयान की हैं ...
ReplyDeleteसच है गाँव शहर हो जाता है जब सेतु का निर्माण मन के किसी कोने में होने लगता है ... पलायन का बीज उगने लगता है ... पर क्यों न इस अंतर को मिटाया जाये ... गाँव और शहर एक हो जाये तो निर्माण की राह बने ...
वाह!!श्वेता ,अद्भुत!!
ReplyDeleteसूखे बबूल के काँटों में
उलझी पतंगें ,आँख मिचौनी
...............
बहुत सुंदर !
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (03-12-2019) को "तार जिंदगी के" (चर्चा अंक-3538) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
माँ-बाबू के भींगे तकिये
ReplyDeleteगुड़िया ब्याहती बहन के सपने
बेगारी की बढ़ती डिग्री
बे-इलाज़ मरते कुछ अपने
अमिया चटखाते हाथों में
वक़्त घड़ी के बँधते ही
गाँव शहर हो जाते हैं...।बहुत सुंदर और भावों से भरी रचना प्रिय श्वेता | गांवों का शहर हो जाना सुदृढ़ सभ्यता का परिचायक है पर संवेदनहीनता इस चकाचौंध में नदारद दिखाई पड़ती है | सस्नेह-
कृपया संवेदनहीनता की जगह संवेदनशीलता पढ़ें। गलती के लिए खेद है 🙏🙏
ReplyDeleteसभ्यताएँ करती हैं बग़ावत
ReplyDeleteपरंपराओं की ललकार में
भूख हार मान जाती है
सोंधी माटी से तकरार में
रोटी की आस में जुआ उतार
गमछे में कुछ बाँध चबेने
गाँव शहर हो जाते हैं
बहुत सुंदर ,यथार्थ और भावपूर्ण रचना हमेशा की तरह ,सादर स्नेह श्वेता जी
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति
ReplyDelete"...
ReplyDeleteभूख हार मान जाती है
सोंधी माटी से तकरार में
..."
बहुत ही बढ़िया...श्वेता दी।
गावँ का संस्कार, उसकी गीतें, बातें, यादें, त्योहार, मौसम, हरियाली, फसलें, रिश्तें, उसकी भावुकता और मजबूरियाँ...लगभग सबकुछ आपने समेट कर हमारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया आपने। वो भी बिल्कुल सरल भाषा में.......या फिर बोलूँ कि अपनी मिट्टी की भाषा में। वाकई अद्भूत है।
एकबार जो पढना आरंभ किया सीधा अंतिम पंक्ति पर ठहरा मैं। बहुत ही भावुक रचना।
वाह यथार्थ चित्रण
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