सभ्यताएँ करती हैं बग़ावत
परंपराओं की ललकार में
भूख हार मान जाती है
सोंधी माटी से तकरार में
रोटी की आस में जुआ उतार
गमछे में कुछ बाँध चबेने
गाँव शहर हो जाते हैं...।
सूनी थाली बुझती अंगीठी
कर्ज़ में डूबी धान बालियाँ
फटा अँगोछा,झँझरी चुनरी
गिरवी गोरु,बैल,झोपड़ियाँ
सपनों के कुछ बिचड़े चुनकर
नन्ही-सी गठरी बँधते ही
गाँव शहर हो जाते हैं...।
पकी निबौरी, सखुआ,महुआ
कटते वृक्ष,पठार बेहाल
ताल,पोखरा,कूप सिसकते
चिड़िया चुप,निर्जन चौपाल
कच्ची पगडंडी पर चलते
स्मृतियों की खींच लकीरें
गाँव शहर हो जाते हैं...।
माँ-बाबू के भींगे तकिये
गुड़िया ब्याहती बहन के सपने
बेगारी की बढ़ती डिग्री
बे-इलाज़ मरते कुछ अपने
अमिया चटखाते हाथों में
वक़्त घड़ी के बँधते ही
गाँव शहर हो जाते हैं...।
सूखे बबूल के काँटों में
उलझी पतंगे,आँख-मिचौली
मांदर-ढोल भूले बिरहा,चैता
टूटी आस की बँसुरी,ढफली
'प्रेमचंद',' रेणु' की चिट्ठियाँ
'गोंडवी' के संदेशे पढ़ते-पढ़ते
गाँव शहर हो जाते है....।
#श्वेता सिन्हा