चित्र:मनस्वी
मृदुल मुस्कान और
विद्रूप अट्टहास का
अर्थ और फ़र्क़ जानते हैं
किंतु
जिह्वा को टेढ़ाकर
शब्दों को उबलने के
तापमान पर रखना
जरूरी है।
हृदय की वाहिनियों में
बहते उदारता और प्रेम
की तरंगों को
तनी हुई भृकुटियों
और क्रोध से
सिकुड़ी मांसपेशियों ने
सोख लिया हैं।
ठहाके लगाना
क्षुद्रता है और
गंभीरता;
वैचारिक गहनता का मीटर,
वे जागरूक
बुद्धिजीवी हैं!
वे जागरूक
बुद्धिजीवी हैं!
उनमें योग्यता है कि
वे हो जाये उदाहरण,
प्रणेता और अनुकरणीय
क्योंकि वे अपने दृष्टिकोण
की परिभाषाओं के
जटिल एवं तर्कपूर्ण
चरित्र में उलझाकर
शाब्दिक आवरण से
मनोभावों को
कुशलता से ढँकने का
हुनर जानते हैं।
विवश हैं ...
चाहकर भी
विवश हैं ...
चाहकर भी
गा नहीं सकते प्रेम गीत,
अपने द्वारा रचे गये
आभा-मंडल के
वलय से बाहर निकलने पर
निस्तेज हो जाने से
भयभीत भी शायद...।
भयभीत भी शायद...।
#श्वेता सिन्हा
९जुलाई २०२०
व्वाहहह...
ReplyDeleteठहाके लगाना
क्षुद्रता है और
गंभीरता;
वैचारिक गहनता का मीटर,
वे जागरूक
बुद्धिजीवी हैं!
उनमें योग्यता है कि
वे हो जाये उदाहरण,
बेहतरीन..
बहुत बहुत आभारी हूँ दी।
Deleteआपका स्नेहाशीष अमूल्य है।
सादर।
बहुत खूब सटीक।
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ सर।
Deleteआपका आशीष मिला।
सादर।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 10 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ दी।
Deleteआपका स्नेह है।
सादर।
सुन्दर गवेषणा।
ReplyDeleteआभारी हूँ सर।
Deleteसादर।
👍
ReplyDeleteआभारी हूँ भाई।
Deleteबेहतरीन रचना श्वेता जी
ReplyDeleteआभारी हूँ अनुराधा जी।
Deleteसुंदर प्रस्तुति। कई बार लोग अपनी ही इमेज में कैद होकर रह जाते हैं और चाहकर भी उससे बाहर नहीं आ पाते वहीं कई बार उन व्यक्तियों के प्रशंसक भी उन्हें इस इमेज में कैद करना चाहते और उन्हें बाहर आने नहीं देते। आपने इस विवशता को बाखूबी दर्शाया है।
ReplyDeleteरचना का मर्म स्पष्ट करने के लिए बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteशुक्रिया।
सादर।
बहुत आभारी हूँ अनु।
ReplyDeleteसस्नेह शुक्रिया।
जिह्वा को टेढ़ाकर
ReplyDeleteशब्दों को उबलने के
तापमान पर रखना
जरूरी है।
वाह!!!
वे जागरूक
बुद्धिजीवी हैं!
उनमें योग्यता है कि
वे हो जाये उदाहरण,
प्रणेता और अनुकरणीय
क्योंकि वे अपने दृष्टिकोण
की परिभाषाओं के
जटिल एवं तर्कपूर्ण
चरित्र में उलझाकर
शाब्दिक आवरण से
मनोभावों को
कुशलता से ढँकने का
हुनर जानते हैं।
कमाल का सृजन...
निशब्द हूँ ऐसे बुद्धिजीवियों के हाव भाव से मनमस्तिष्क की अनुभूति को आश्चर्यजनक शब्द देना कोई आपसे सीखे...
वाह वाह...
बहुत ही लाजवाब।
ठहाके लगाना
ReplyDeleteक्षुद्रता है और
गंभीरता;
वैचारिक गहनता का मीटर,
वे जागरूक
बुद्धिजीवी हैं!
बहुत खूब,श्वेता जी सादर नमन आपको
विवश हैं ...
ReplyDeleteचाहकर भी
गा नहीं सकते प्रेम गीत,
सुन्दर सृजन
अति सुन्दर रचना
ReplyDeleteअत्यन्त सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteगहन विचारों का गहन सृजन।
ReplyDeleteअपने बनाए जाल में घिरा रहता है व्यक्ति मकड़ी की तरह।
आत्म वंचना में फसा।
अप्रतिम सृजन।
बहुत खूब प्रिय श्वेता | कथित बुद्धिजीवियों के ओढ़े हुए छद्म आचरण को खूब आइना दिखाती प्रभावी रचना | अपने नैसर्गिक भावों का दमन कर - गाम्भीर्य का आवरण धारणकर वे कौन सी प्रसिद्धि चाहते हैं समझ नहीं आता | शायद आज बौद्धिक समाज प्रेमगीतों को निरर्थक समझ बौद्धिकता को ज्यादा महत्व देता है जिसके लिए किसी के सम्मान को ठेस भी पहुंचा दे उसे ग्लानी नहीं होती | सराहनीय सृजन जो मंथन को प्रेरित करता है |
ReplyDeleteबड़ी गूढ़ बात कही है श्वेता जी आपने । लेकिन बिलकुल सच्ची ।
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