बर्बरता के शिकार
रक्तरंजित,क्षत-विक्षत देह,
गिरते-पडते,भागते-कूदते
दहशत के मारे
आत्महत्या करने को आमादा
लोगों की
तस्वीरों के भीतर की
सच की कल्पना
भीतर तक झकझोर रही है।
पुरातात्विक विश्लेषकों के साथ
सभ्यताओं की
अंतिम सीढ़ी पर लटके
जिज्ञासुओं की भाँति
देखकर अनुमान के आधार पर
अधजली लाशों का बयान,
मुर्दा इंसानियत की आपबीती का
शाब्दिक विश्लेषण
बौद्धिक क्षमता का प्रदर्शन
मुर्दाघर में कार्यरत कर्मचारियों की भाँति
यंत्रचालित व्यवहार-सा प्रतीत होने लगता है।
स्व,स्वजन को सुरक्षित मानकर
सहयोग के किसी भी रूप से
दूसरे कबीलों की कठिन
परिस्थितियों पर
उसका संबल न बनकर
व्यंग्यात्मक प्रहार,उपदेश और ज्ञान की
बौछार
मूढ़ता है या असंवेदनशीलता?
यह मात्र मानवता से जुड़ा प्रश्न नहीं
बौद्धिक आचरण का
सूक्ष्म विश्लेषण है।
किसी भी दौर में
ज़ुबान काटकर,
हाथ पैर बाँधकर,
ताकत और हथियारों के बल पर
सत्ता स्थापित करने की कहानियाँ
इतिहास के लिए नयी नहीं...,
नयी तो होती है
पुनर्जन्म लेकर भी
गुलामों की फौज में शामिल होने की
अपरिवर्तित प्रवृतियाँ,
हर बार आतातायियों के समर्थन में
गूँगों के निहत्थे समूहों को डराकर
इतिहास के प्रसिद्ध उद्धरणों को भूलकर,
स्वयं को सर्वशक्तिमान
समझने का दंभ भरना
विनाश के बीज से
फूटने वाले अंकुर का
पूर्वाभासी गंध है।
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#श्वेता सिन्हा
१८ अगस्त २०२१
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 19 अगस्त 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteरोंआ-रोंआ में खौफनाक सिरहन का जाना-पहचाना अहसास होता प्रतीत हो रहा है । मन बस त्राहि-त्राहि कर रहा है । सामूहिक कल्याण हो धरा पर ।
ReplyDeleteबौद्धिक वर्ग विश्लेषण ही करना जानते हैं , ऐसे बर्बर हालात पढ़ - सुन कर मन दहशत से भर उठता है , लगता ही नहीं कि ये इक्कीसवीं सदी है ... भारत वर्षों पहले ये त्रासदी झेल चुके है और आने वाले वर्षों में शायद ऐसा ही कुछ यहाँ भी हो सकता है , अभी से नहीं संभले तो आने वाली पीढ़ी को तैयार रहना चाहिए । तुम्हारी इस रचना ने झकझोर दिया है ।
ReplyDeleteस्वयं को सर्वशक्तिमान
समझने का दंभ भरना
विनाश के बीज से
फूटने वाले अंकुर का
पूर्वाभासी गंध है।
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यही बात मेरे मन में कब से चल रही है बता नहीं सकती ।
इस समय के घटना क्रम और भविष्य का दृश्य इस रचना में स्पष्ट दिख रहा है ।
जानते-बूझते भी नहीं समझ पा रहे हम, द्वार पर खड़ी विपत्ति को
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteनिर्दयता का भीषण ताण्डव...
ReplyDeleteसामयिक उद्बोधन..
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteगहन
ReplyDeleteगहरे भाव ...
ReplyDeleteमन को छूते हुए गुज़र गए ...
मुर्दा इंसानियत की आपबीती का
ReplyDeleteशाब्दिक विश्लेषण
बौद्धिक क्षमता का प्रदर्शन
मुर्दाघर में कार्यरत कर्मचारियों की भाँति
यंत्रचालित व्यवहार-सा प्रतीत होने लगता है।...अपने आप को झकझोरती अभिव्यक्ति,गूढ़ रचना।
स्व,स्वजन को सुरक्षित मानकर
ReplyDeleteसहयोग के किसी भी रूप से
दूसरे कबीलों की कठिन
परिस्थितियों पर
उसका संबल न बनकर
व्यंग्यात्मक प्रहार,उपदेश और ज्ञान की
बौछार
मूढ़ता है या असंवेदनशीलता?
यह मात्र मानवता से जुड़ा प्रश्न नहीं
बौद्धिक आचरण का
सूक्ष्म विश्लेषण है।
एकदम सटीक... इतिहास दोहराते ये सर्वशक्तिमान
विनाश की ओर ही अग्रसर हैं..।
समसामयिक परिस्थितियों पर लाजवाब विश्लेषणात्मक भावाभिव्यक्ति।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२८-०८-२०२१) को
'तुम दुर्वा की मुलायम सी उम्मीद लिख देना'(चर्चा अंक-४१७०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
श्वेता दी, सचमुच आज के हालात देख कर मन मे बार बार यही सवाल आता है कि इंसान ही इंसानों के प्रति इतना बर्बर कैसे हो सकता है? क्या उनके हृदय में दिल नहीं है? दूसरों को तडपा तडपा कर मारते हुए उनके हाथ नही कांपते?
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना।
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteइतिहास के प्रसिद्ध उद्धरणों को भूलकर,
ReplyDeleteस्वयं को सर्वशक्तिमान
समझने का दंभ भरना
विनाश के बीज से
फूटने वाले अंकुर का
पूर्वाभासी गंध है।
सही कहा आपने। आज के हालात के लिए सटीक पंक्तियाँ।
विनाश के बीज से
ReplyDeleteफूटने वाले अंकुर का
पूर्वाभासी गंध है।---बहुत खूब...गहनतम लेखन
ना वो रहे ना ये रहेगें पर इतिहास इन क्रूरतम घटनाओं का मकबरा सहेजें रहेगा अपने गर्भ में मुर्दा मानवता की लाशों को।
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी उद्गार सामायिक सटीक।
स्वयं को सर्वशक्तिमान
ReplyDeleteसमझने का दंभ भरना
विनाश के बीज से
फूटने वाले अंकुर का
पूर्वाभासी गंध है।
इंसान जब विनाश की ओर बढता है तो अपनी विवेक शक्ति खो देती है. वही हाल आज है. मानवीय संवेदना को झकछोर देने वाली रचना.