फागुन के मौसम में
ढाक के गंधहीन फूलों को
बदन पर मल-मलकर
महुआ की गंध से मतायी
मेरे श्वासों की सारंगी
समझने का प्रयास करती है
जीवन का अर्थ...।
मेरे जन्म पर
न सप्तऋषियों ने कोई बैठक की
न ग्रहों की चाल ने कोई
विशेष योग बनाया ...
न सूरज मुस्कुराया
न चाँद खिलखिलाया
न सितारों ने भेजा जादुई संदेश
न मछलियाँ देखकर शरमाई
न नदियों ने किलककर तान सुनाया
न कलियों के अधर चूमकर
तितलियों ने प्यार किया
न ही पंखुडियों को छेड़कर
भँवरों ने आँखें चार किया ...
न किसी कवि ने प्रेम गीत लिखा
न किसी शायर ने मनमीत लिखा
संसार के अपरिचित,सामान्य तट पर
किसी भी परिस्थिति में जीवट-सी
चुल्लू भर पानी में डूबकर
पुष्पित-पल्लवित होती रही
बेहया का फूल बनकर
सदा से उदासीन और उपेक्षित
प्रकृति का अंश होकर भी
प्रकृति में समाने को व्याकुल,
छटपटाती रही उम्रभर...।
-श्वेता
३ मार्च २०२५