व्यर्थ क़लम का रोना-धोना
न चीख़ का कोई अर्थ हू्ँ मैं
दर्द उनका महसूस करूँ
कुछ करने में असमर्थ हूँ मैं
न हृदय लगा के रो पाई
न चूम पाँव को धो पाई
तन के टुकड़े कैसे चुनती
आँचल छलनी असमर्थ हूँ मैं
माँ के आँखों का गंगाजल
पापा के कंधे का वो बल
घर-आँगन का दीप बुझा
न जला सकूँ असमर्थ हूँ मैं
भरी माँग सिंदूर की पोंछ
वो बैठी सब श्रृंगार को नोंच
उजड़ी बगिया सहमी चिड़िया
क्या समझाऊँ असमर्थ हूँ मैं
सब आक्रोशित है रोये सारे
गूँजित दिगंत जय हिंद नारे
वह दृश्य रह-रह झकझोर रहा
उद्विग्न किंतु असमर्थ हूँ मैं
क़लम मेरी मुझे व्यर्थ लगे
व्याकुलता का न अर्थ लगे
हे वीरों ! मुझे क्षमा करना
कुछ करने में असमर्थ हूँ मैं
मात्र नमन ,अश्रुपूरित नमन
तुम्हें शत-शत नमन कोटिश
हे वीरों ! मुझे क्षमा करना
यही कहने में समर्थ हूँ मैं
#श्वेता सिन्हा