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Friday, 22 June 2018

आख़िर कब तक?


आखिर कब तक?

एक मासूम दरिंदगी का शिकार हुई
यह चंद पंक्तियों की ख़बर बन जाती है
हैवानियत पर अफ़सोस के कुछ लफ़्ज़
अख़बार की सुर्ख़ी होकर रह जाती है
अनगिनत अनदेखे सपनों के सितारे
अपनी पनीली आँखों में भरकर
माँ के आँचल की ओट से मुस्काती थी
फुदकती घर-आँगन में चिड़ियों-सी
गुड़िया,गुड़ियों का संसार रचाती थी
माटी के महावर लगाती
काग संग कितना बतियाती थी
चंदा मामा की कहानी से नहीं अघाती
कोयल की कविता ऊँचे सुर में गाती थी
बचपने को उसके बेदर्दी से कुचला गया
नन्ही-सी कली को रक्तरंजित कर फेंका गया
जिसे औरतपन का ज्ञान नहीं 
भूख में भात,प्यास में पानी की जरुरत
माँ की गोदी ही आशियां उसका था
भेंड़ियों के द्वारा उसे नोंचा गया
दुनियादारी से अब तक 
जिसकी पहचान नहीं
न उभार अंगों में,न पुष्ट सौष्ठव
दुबले तन पर लिबास का भान नहीं
जाने कैसे वासना जगाती है?
मासूमियत दरिंदे का आसान शिकार हो जाती है
पल-पल मरती वो पाँच साल की परी
नारी का प्रतिमान हो जाती है
नहीं हँसती है आजकल
उसकी चुप्पी डसती है आजकल
गालों पर सूखी आँसू की रेखा
वो लोगों से बचती है आजकल
सूनी आँखों से ताकती मरते  सपनों को
सिसकती,सिहरती, सहमती देख अपनों को
माँ का हृदय फटा जाता है
क्या करूँ कैसे समझाऊँ मैं
किस आँचल में अब मैं छुपाऊँ
कैसे उसका सम्मान लौटाऊँ
देवी का रुप कहलाने वाली
राक्षसों का भोग बन जाती है
कब शीश लोगी भेंट माँ ?
ऐसे समाजिक पशुओं का..
कितना और सहना होगा
नारी जाति में जन्म लेने का दंश
प्रकृति प्रदत्त तन का अभिशाप
बदन पर ठोंके कीलों का गहना होगा
अब बहुत हुआ
सीख लो आत्मरक्षा बेटियों
तुम त्रिशूल की धार हो जाओ
अवतार धर कर शक्ति का
असुरों पर खड्ग का प्रहार हो जाओ
छूकर तुझको भस्म हो जाये
धधकती ज्वाला,अचूक वार हो जाओ

  --श्वेता सिन्हा


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