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Sunday, 10 November 2019

इंद्रधनुष



ओ मेरे मनमीत
लगभग हर दिन
तुमसे नाराज़ होकर
ख़ुद को समेटकर
विदा कर आती हूँ
हमारा प्रेम....
फिर कभी तुम्हें
अपनी ख़ातिर
व्याकुल न करने का
संकल्प लेकर..
मुझसे बेहतर
 प्रेम का तुम्हें
प्रतिदान मिले
प्रार्थनाओं के साथ....,


पर एक डग भी नहीं
बढ़ा पाती,..
मेरा आँचल पकड़े
एक ज़िद्दी बच्चे की तरह...
ख़्यालों में तुम्हारे मुस्कुराते ही
संकल्पों का पर्वत
पिघलकर अतृप्त 
सरिता-सा
तुम्हारे नेह की बारिश 
में भींगने को
आतुर हो जाता है।

धवल चाँद का पाश 
पायलों से घायल
ख़ुरदरे पाँवों में 
 पहना देते हो तुम
मल देते हो मेरी
गीली पलकों पर
मुट्ठी भर चाँदनी....
मैं खीझ उठती हूँ
आखिर क्यों चाहिये 
तुम्हें मेरा बँटा मन?
और तुम कहते हो
पूर्णता शून्य है....

फिर हौले से
मेरी मेघ आच्छादित
पलकों से चुनकर
कुछ बूँदें रख देते हो
अपने मन के 
आसमान पर..
गुस्से का कोहरा
छँटने के बाद
भावनाओं के सूरज की
किरणें जब मुझसे
टकराकर तुम्हें छुये तो
क्षितिज के कोर पर उगे
प्रेम के अनछुये इंद्रधनुष,
जिसकी छाँव में
हम आजीवन बुनते रहेंं
अनदेखे स्वप्न और
सुलझाते रहें गाँठ
जीवन के जटिल सूत्रों के

#श्वेता सिन्हा

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