नभ के दालान से
पहाड़ी के
कोहान पर फिसलकर
कोहान पर फिसलकर
क्षितिज की बाहों में समाता
सिंदुरिया सूरज,
सिंदुरिया सूरज,
किरणों के गुलाबी गुच्छे
टकटकी बाँधें
पेड़ों के पीछे उलझकर
पेड़ों के पीछे उलझकर
अनायास ही गुम हो जाते हैंं,
गगन के स्लेटी कोने से
उतरकर
उतरकर
मन में धीरे-धीरे समाता
विराट मौन
विराट मौन
अपनी धड़कन की पदचाप
से चिंहुकती
से चिंहुकती
अपनी पलकों के
झपकने के लय में गुम
झपकने के लय में गुम
महसूस करती हूँ
एकांत का संगीत
एकांत का संगीत
चुपके से नयनों को ढापती
स्मृतियों की उंगली थामे
मैं स्वयं स्मृति हो जाती हूँ
एक पल स्वच्छंद हो
निर्भीक उड़कर
सारा सुख पा लेती हूँ,
नभमंडल पर विचरती
चंचल पंख फैलाये
चंचल पंख फैलाये
भूलकर सीमाएँ
कल्पवृक्ष पर लगे
मधुर पल चखती
मधुर पल चखती
भटकती
अमृत-घट की
एक बूँद की लालसा में
एक बूँद की लालसा में
तपती मरुभूमि में अनवरत,
दिव्य-गान हृदय के
भावों का सुनती
भावों का सुनती
विभोर सुधी बिसराये
घुलकर चाँदनी की रजत रश्मियों में
एकाकार हो जाती हूँ
तन-मन के बंधनों से मुक्त निमग्न
सोमरस के मधुर घूँट पी
कड़वे क्षणों को विस्मृत कर
चाहती हूँ अपने
एकांत के इस उत्सव में
तुम्हारी स्मृतियों का
चिर स्पंदन।
----श्वेता सिन्हा