अपनी छोटी-छोटी
जरुरतों के लिए
हथेली पसारे
ख़ुद में सिकुड़ी,
बेबस स्त्रियों को
जब भी देखती थी
सोचती थी...
आर्थिक रूप से
आत्मनिर्भरता ही
शर्मिंदगी और कृतज्ञता
के भार से धरती में
गड़ी जा रही आँखों को
बराबरी में देखने का
अधिकार दे सकेगा।
पर भूल गयी थी...
नाजुक देह,कोमल मन के
समर्पित भावनाओं के
रेशमी तारों से बुने
स्त्रीत्व का वजन
कठोरता और दंभ से भरे
पुरुषत्व के भारी
पाषाण की तुलना में
कभी पलडे़ में
बराबरी का
हो ही नहीं सकता।
आर्थिक आत्मनिर्भरता
"स्व" की पहचान में जुटी,
अस्तित्व के लिए संघर्षरत,
सजग,प्रयत्नशील
स्त्रियों की आँख पर
सामर्थ्यवान,सहनशील,
दैवीय शक्ति से युक्त,
चाशनी टपकते
अनेक विशेषणों की
पट्टी बाँध दी जाती है
चतुष्पद की भाँति,
ताकि
पीठ पर लदा बोझ
दिखाई न दे।
चलन में नहीं यद्यपि
तथापि स्त्री पर्याय है
स्वार्थ के पगहे से बँधा
जीवन कोल्हू के वर्तुल में
निरंतर जोते हुए
बैल की तरह
जिसे कभी कौतूहल
तो कभी सहानुभूति से
देखा जाता है,
उनके प्रति
सम्मान और प्रेम का
प्रदर्शन
छलावा के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
शायद...!
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©श्वेता सिन्हा
२९मई २०२०