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Friday, 29 May 2020

छलावा


अपनी छोटी-छोटी
जरुरतों के लिए
हथेली पसारे
ख़ुद में सिकुड़ी,
बेबस स्त्रियों को 
जब भी देखती थी
सोचती थी... 

आर्थिक रूप से
आत्मनिर्भरता ही
शर्मिंदगी और कृतज्ञता
के भार से धरती में
गड़ी जा रही आँखों को
बराबरी में देखने का
अधिकार दे सकेगा।
पर भूल गयी थी...
नाजुक देह,कोमल मन के
समर्पित भावनाओं के
रेशमी तारों से बुने
स्त्रीत्व का वजन
कठोरता और दंभ से भरे
पुरुषत्व के भारी 
पाषाण की तुलना में
कभी पलडे़ में
बराबरी का
हो ही नहीं सकता।

 आर्थिक आत्मनिर्भरता
 "स्व" की पहचान में जुटी,
अस्तित्व के लिए संघर्षरत,
सजग,प्रयत्नशील 
स्त्रियों की आँख पर
 सामर्थ्यवान,सहनशील,
दैवीय शक्ति से युक्त,
चाशनी टपकते
अनेक विशेषणों की
पट्टी बाँध दी जाती है
चतुष्पद की भाँति,
ताकि 
पीठ पर लदा बोझ
दिखाई न दे।

चलन में नहीं यद्यपि
तथापि स्त्री पर्याय है
स्वार्थ के पगहे से बँधा
जीवन कोल्हू के वर्तुल में
निरंतर जोते हुए
बैल की तरह
जिसे कभी कौतूहल
तो कभी सहानुभूति से
देखा जाता है,
उनके प्रति
 सम्मान और प्रेम का 
 प्रदर्शन
 छलावा के अतिरिक्त
 कुछ भी नहीं
 शायद...!
-------
©श्वेता सिन्हा
२९मई २०२०

Monday, 2 September 2019

स्त्री..व्रत


सारा अंतरिक्ष नापकर 
मंगल और चंद्र की माटी जाँचकर
स्त्रियों के लिए 
रेखांकित सीमाओं को
मिटाने के लिए
सतत प्रयासरत
इंटरनेट क्रांति के युग में
फेसबुक,ट्विटर पर
परिमार्जित किये गये
स्त्री के रुप
विचारों में कम
शब्दों में ज्यादा
परंपरागत,पोंगापंथी,ढकोसला 
जैसे शब्दों की आहुति देकर
"आधुनिका"के
शाब्दिक ओज से गर्विता
सभी वर्जनाओं को तोड़कर 
स्त्री स्वतंत्रता की गढी गयी परिभाषाएँ,
पुरुषों के समकक्ष खड़ी स्त्री
माँ-दादी-नानी,बुआ-चाची
भाभी-ताई के द्वारा डाली गयी
खादभरी माटी में
मन के जड़ में रोपी गयी
संस्कार,परंपराओं की
बीज से पनपी बेलों से
एक आध डाली या 
कुछ पत्तियाँ
तोड़कर भले ही फेंक दे
पर जड़ से इतर पुष्पित
कैसे हो सकती है?
एक स्त्री के लिए
व्रत,उपवास मात्र 
औपचारिकता नहीं
पति मात्र एक चुटकी सिंदूर नहीं होता
संपूर्ण जीवन को जीने का
एक कारण होता है
अपने दैनिक जीवन में
आधुनिक सारे तर्क को
मन से परे हटाकर 
जानती है कि उसके 
माँग में सिंदूर भरने या 
या व्रत करने से
पति की उम्र का कोई लेना-देना नहीं....
पर वो जानती है
अपने सच्चे मन से की गयी
प्रार्थना की अलौकिक अनुभूति को
अपने मन के प्रेम की शक्ति को,
निर्जल रहकर, करती है सजल 
भाव से मनौतियाँ
बाँधती है मौली के कच्चे धागों में
अधपके,अधूरे स्वप्न,
काल के अनदेखे पहियों पर,
एकाग्रचित अपने साँस में जपती
अपने आशाओं और सुख की माला
तिरोहित कर बराबरी का अधिकार
आत्मा से साक्षात्कार करती
जीवन के गूढ़ गाँठों को सुलझाती
अपने समर्पित प्रेम की ज्योति से 
दिपदिपाना चाहती है 
अपने मन के पुरुष के साथ आजीवन।

#श्वेता सिन्हा



Thursday, 1 August 2019

साधारण स्त्री


करारी कचौरियाँ,
मावा वाली गुझिया,
रसदार मालपुआ,
खुशबूदार पुलाव,
चटपटे चाट,
तरह-तरह के 
व्यंजन चाव से सीखती
क्योंकि उसे बताया गया है
"आदमी के दिल तक पहुँचने का रास्ता
उसके पेट से होकर जाता है।"

काजल,बिंदी,नेलपॉलिश,
लिपिस्टिक के नये शेड्स
मेंहदी के बेलबूटे काढ़ती
रंगीन चूडियों,पायलों,झुमकों
के नये डिजाइन 
सुंदर कपड़ों के साथ मैचिंग करती
फेशियल,ब्लीच,ख़ुद को निखारने
के घरेलू नुस्खों
का प्रयोग सीखती है
क्योंकि अपने सौंदर्य के
सरस सागर में डूबोकर 
लुभाकर विविध उपक्रमों से
वो कहलायेगी पतिप्रिया
एक खूबसूरत औरत....।

भाभी,मामी,चाची,बुआ और
अड़ोस-पड़ोस के बच्चे
प्यार-दुलार से सँभालती
तीज-त्योहार के नियम 
व्रत-पूजा की बारीकियाँ
चुन्नी के छोर में गाँठ बाँधती 
देवी-देवताओं को
मंत्रों से साधती
क्योंकि एक सुघढ़,संस्कारी 
पत्नी,बहू और माँ
पतिव्रता औरत बनना ही
उसके स्त्री जीवन की
सफलता है।

एक साधारण स्त्री
अपने सामान्य जीवन में
अपनी आँखों के कटोरे में
भरती है छुटपने से ही
पढ़-लिखकर ब्याहकर 
एक छोटे से सजे-धजे घर में
दो-चार जोड़ी बढ़िया कपड़े पहन,
पाँच जडा़ऊ गहने लादे
दो गुलथुल बच्चे के नखरे उठाती
पति के आगे-पीछे घूमती
पूरी ज़िंदगी गुजार देने का
असाधारण-सा ख़्वाब 
क्योंकि एक साधारण औरत के
जीवन के स्वप्न का हर धागा
बँधा होता है 
पुरुष के सशक्त व्यक्तित्व में
सदियों पहले ठोंके गये
बड़ी-बड़ी मजबूत कीलों के साथ।

#श्वेता सिन्हा





Monday, 22 July 2019

कोख


स्त्री अपनी पूर्णता 
कोख में अंकुरित,
पल्लवित बीज,
शारीरिक,मानसिक,
जैविक बदलाव
महसूस कर
गर्वित होती है
जो प्रत्यक्ष 
देखा-समझा जा
सकता है।

पर क्या....
आपने महसूस 
किया है कभी
पिता बनते पुरुष की 
अदृश्य कोख
जिसमें पलते हैं
स्त्री की कोख के
समानांतर
अनगिनत,अनगढ़
स्वप्नों के बीज।

अपने अव्यक्त मन की
कोख को सींचकर
नन्हीं आशाओं की
अनछुई लकीरों से
शिशु के भविष्य की
एक-एक कोशिका
प्रतिदिन जोड़ता,गढ़ता
पालता है जतन से
आकार लेने तक।

प्रसव-पीड़ा से 
छटपटाती माँ की तरह
पीकर विष का घूँट
रखकर मान-अपमान परे
संतान की ख़ुशियाँ
जुटाने के लिये 
निरंतर कर्मशील
बिना चीख़े
वो सहता रहता है
सपनेे जन्मने के बाद भी
आजीवन
प्रसव का दर्द।

कोख दृश्य हो कि अदृश्य
एक संतान के लिये
कोख साझा करते
माता-पिता
उसके इर्द-गिर्द
बुनते रहते हैं
अदृश्य कवच
आजीवन
और....
सिलते रहते हैं 
अपनी कामनाओं का
फटा आसमान...। 
गूलते रहते हैं आशीष
सृष्टि की अनदेखी 
परमशक्तियों की तरह...।

 #श्वेता सिन्हा

Friday, 8 March 2019

स्त्री:वैचारिकी मंथन


गोरी,साँवली,गेहुँआ,काली
मोटी,छोटी,दुबली,लम्बी,
सुंदर,मोहक,शर्मीली,गठीली
लुभावनी,मनभावनी,गर्वीली
कर्कशा,कड़वी,कंटीली
विविध संरचनाओं से निर्मित
आकर्षक ,अनाकर्षक
देह के खोल में बंद
अग्नि-सी तपती
फैलकर अदृश्य प्राणवायु-सी
विस्तृत नभ हृदय आँचल में 
समेटती संसार
बुझाती मन की तृष्णा 
प्रेम के शीतल जल से सींचकर
बीजों को पालती
अच्छी-बुरी,अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थितियों के हर खाँचें में
व्यवस्थित हो जाती 
सृष्टि के पंचभूत मूल में
निहित भावों की प्रामाणिक
परिभाषा स्त्री से है।

जो भी रंग बिखरा है 
प्रकृति का कण-कण
जिसकी छुअन से निखरा है
कोमल,रेशमी,नाज़ुक
पशमीना,मादक,नशीला
सोच के रस डूबे विचारों का
अनवरत सिलसिला है
शून्य में गुंजित आह्लाद
सुरीली सरगम,अनहद नाद
श्रृंगार और विलास
रंज़,ख़ुशी,क्षोभ,शोक,व्यथा
उल्लास,उमंग,चटकीला है
दंभ,ओज,पराक्रम,गर्व
पौरुष को मान जो मिला है
धरा पर सृजन का गान
सुरभित उजास
महसूस करो सब स्त्री से है।

#श्वेता सिन्हा
८ मार्च २०१९

Wednesday, 16 January 2019

समानता


देह की 
परिधियों तक
सीमित कर
स्त्री की 
परिभाषा
है नारेबाजी 
समानता की।

दस हो या पचास
कोख का सृजन
उसी रजस्वला काल 
से संभव
तुम पवित्र हो 
जन्म लेकर
जन्मदात्री
अपवित्र कैसे?

रुढ़ियों को 
मान देकर
अपमान मातृत्व का
मान्यता की आड़ में
अहं तुष्टि या
सृष्टि के
शुचि कृति का
तमगा पुरुष को

देव दृष्टि 
सृष्टि के 
समस्त जीव पर 
समान,
फिर...
स्त्री पुरुष में भेद?
देवत्व को 
परिभाषित करते 
प्रतिनिधियो; 
देवता का
सही अर्थ क्या?

देह के बंदीगृह से
स्वतंत्र होने को
छटपटाती आत्मा
स्त्री-पुरुष के भेद
मिटाकर ही
पा सकेगी
ब्रह्म और जीव
की सही परिभाषा।

-श्वेता सिन्हा



Saturday, 3 November 2018

माँ हूँ मैं


गर्व सृजन का पाया
बीज प्रेम अंकुराया
कर अस्तित्व अनुभूति 
सुरभित मन मुस्काया 

स्पंदन स्नेहिल प्यारा
प्रथम स्पर्श तुम्हारा
माँ हूँ मैं,बिटिया मेरी
तूने यह बोध कराया

रोम-रोम ममत्व कस्तूरी 
जीवन की मेरी तुम धुरी
चिड़िया आँगन किलकी
ऋतु मधुमास घर आया

तुतलाती प्रश्नों की लड़ी
मधु पराग फूलों की झड़ी 
"माँ" कहकर बिटिया मेरी
माँ हूँ यह बोध कराया

नन्हें पाँव की थाप से डोले
रूनझुन भू की वीणा बोले
थम समीर छवि देखे तेरी
ठिठका इंद्रधनुष भरमाया

जीवन पथ पर थामे हाथ
भरती डग विश्वास के साथ
शक्ति स्वरुपा कहकर बिटिया
"माँ" का सम्मान बढ़ाया

आशीष को मन्नत माने तू
सानिध्य स्वर्ग सा जाने तू
उज्जल,निर्मल शुभ्र लगूँ
मुझे गंगा पावन बतलाया

जगबंधन सृष्टि क्या जाने तू?
आँचल भर दुनिया माने तू
स्त्रीत्व पूर्ण तुझसे बिटिया
माँ हूँ मैं, तूने ही बोध कराया

--श्वेता सिन्हा

sweta sinha जी बधाई हो!,


आपका लेख - (माँ हूँ मैं ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 

Wednesday, 7 March 2018

नारी : कही-अनकही


जीवन की बगिया की
मैं पुष्प सुरभित सुकुमारी
सृष्टि बीज कोख में सींचती
सुवासित करती धरा की क्यारी

मैं मोम हृदय स्नेह की आँच से
पिघल-पिघल  साँचे में ढलती
मैं गीली माटी प्रेम की चाक में
अस्तित्व भुला घट नेह के भरती

मैं चंदन की लकड़ी घिस-घिस
मन की ज्वाला शीतल करती
मैं मेंहदी की पात-सी पिसकर
साँसों में प्रीति की लाली रचती

मुझ बिन हर कल्पना अधूरी
जगत सृष्टि एक स्वप्न रह जाये
मैं न रहूँ तो शायद लगे यों
प्राण न हो ज्यों तन रह जाये

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆●●●●●●●●◆◆◆◆◆◆◆
"अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस" एक तारीख़ है आधी आबादी के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए,यह जताने के लिए पुरुषसत्ता समाज में उनका भी सम्मान किया जाता है।  बड़ी-बड़ी बयानबाजियों और नारी सुरक्षा के तमाम एक्ट पारित होने के बावजूद अभी भी समाज के कुछ विकृत भेड़ियों से आज भी औरतें, युवतियाँ तो शिकार हैं  ही बच्चियाँ भी सुरक्षित नहीं। दर्द तो इस बात का है कि इन व्याभिचारियों को उचित सजा समय से नहीं मिलती हमारी दोषपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया के आगे लाचार है शिकार महिला वर्ग। क्यों नारी को एक देह के रुप में ही देखा जाता है?  स्वयं अपने बूते हर क्षेत्र में आगे रहने के बावजूद पुरुषों की छत्रछाया में सुरक्षा ढूँढती औरत सच में इतनी ही निरीह है क्या?  चाहे नारी स्वतंत्रता और बदलाव की जितनी भी डुगडुगी पीट ली जाय पर सच तो यही है कि एक स्त्री के लिए समाज की सोच कभी नहीं बदलती।

  ‎‎अपनी श्रेष्ठता,प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए हर बार औरत को प्रमाण देना पड़ता है,अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। ईश्वर के द्वारा बनाई गयी सर्वश्रेष्ठ कृति नारी कोमल तन-मन की स्वामिनी होती है, पर कभी-कभी महसूस होता है औरत की सृजनात्मक क्षमता ही उसका अभिशाप है इसी शक्ति को कमजोरी बनाकर समाज हथियार की तरह उसी के खिलाफ इस्तेमाल करता है। उसका मानसिक,शारीरिक और भावनात्मक दोहन किया जाता है।
  ‎
  नारी अपनी आज़ादी का अर्थ जाने क्यों किचन से छुट्टी, घर की देखभाल से मुक्ति या बड़े-बूढ़ों की सेवा से राहत इत्यादि घरेलू कामों से लगाती है। आज़ादी का व्यापक अर्थ अब तक शायद आधी आबादी के कुछ तबकों की समझ से दूर है। मेरी समझ से "आज़ादी का सही अर्थ अपनी क्रियाशीलता, अपनी सृजनात्मकता,अपनी क्षमता को बिना किसी व्यावधान के उपयोग कर जो आत्मिक खुशी मिलती है उसे महसूस करना है।" मर्यादित या संस्कारों में रहना नारी स्वतंत्रता को कतई कम नहीं करता बल्कि उसमें और तेज उत्पन्न करता है। यह मान लीजिए कि आप की सहनशीलता और दायित्वों का बोध आपकी कार्यक्षमता को निखारता है।  ‎
जो औरतें आज़ादी के नाम पर बेपरवाही का ढोंग करती है, मर्यादाओं को रौंदकर मनचाही ज़िंदगी जीने की महत्वाकांक्षी होती हैं,उन्हें स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का अर्थ जब तक समझ में आता है तब तक सब कुछ बिखर चुका होता है। स्वतंत्रता का गलत फायदा उठाकर स्वयं को मिटाकर,पछताती औरतें जीवन की सिलवटों को खोखली ज़िद और दंभ की परतों में छुपाये भीतर ही भीतर दरकती रहती हैं आधुनिकता का मुखौटा पहनकर और अधिकतर कमज़ोर पड़कर, निराश होकर फिर आत्मघाती कदम उठा लेती हैं।

कुल मिलाकर नारी स्वतंत्रता के नाम पर, आधुनिकता के नाम पर पगलायी औरतों को सही चारित्रिक मूल्य समझकर अपनी प्रतिभा को पहचानकर, स्वाभिमान से समाज में अपनी पहचान बनानी होगी। उन्हें समझना होगा के पल्लू  सर से उतार कमर में खोंसकर अपने अस्तित्व को साबित करने को तैयार नारी की चुनौती पुरुष नहीं, सामाजिक कुरीतियाँ हैं। एक पिता,भाई और पति के रुप में पुरुषों के द्वारा मिले सहयोग और हौसले को सकारात्मक ऊर्जा में बदलने से ही नारी उत्थान संभव है न कि आधुनिकता की होड़ में खोकर अपने अस्तित्व को धूमिल करने में।

   - श्वेता सिन्हा
     ७ मार्च २०१८
     ‎

Monday, 17 July 2017

व्यर्थ नहीं हूँ मैं

व्यर्थ नहीं हूँ मैं,
मुझसे ही तुम्हारा अर्थ है
धरा से अंबर तक फैले
मेरे आँचल में पनपते है
सारे सुनहरे स्वप्न तुम्हारे
मुझसे ही तो तुम समर्थ हो
स्त्री हूँ मैं,तुम्हारे होने की वजह
तुम्हारे जीवन के सबसे खूबसूरत
पड़ाव की संगिनी मैं,
हुस्न हूँ,रंग हूँ ,बहार हूँ
अदा हूँ ,खुशबू हूँ नशा हूँ
तुम्हारे लिए मन्नत का धागा बाँधती
एक एक खुशी के लिए रब के आगे,
अपनी झोली फैलाती
सुख समृद्धि को जाने कितने
टोटके अपनाती
लंबी उमर को व्रत ,उपवास से
ईश को रिझाती
तुम्हारे चौखट को मंदिर समझ
तुम्हें देव रूप मे सम्मान करती
मुहब्बत हूँ ,इबादत हूँ वफा हूँ
तुम्हारी राह के काँटे चुनती
मैं तुम्हारे चरणों का धूल हूँ,
अपने अस्तित्व को भूलकर
तुम में संपूर्ण हृदय से समाहित
तुम्हारी जीवन की नदी में
बूँद बूँद समर्पित मैं,
सिर्फ तुम्हारी इच्छा अनिच्छा
के डोर में झुलती
कठपुतली भर नहीं
"तुम भूल जाते हो क्यों
मैं मात्र एक तन नहीं,
नन्हीं इच्छाओं से भरा
एक कोमल मन भी हूँ।"

         #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...