सारा अंतरिक्ष नापकर
मंगल और चंद्र की माटी जाँचकर
स्त्रियों के लिए
रेखांकित सीमाओं को
मिटाने के लिए
सतत प्रयासरत
इंटरनेट क्रांति के युग में
फेसबुक,ट्विटर पर
परिमार्जित किये गये
स्त्री के रुप
विचारों में कम
शब्दों में ज्यादा
परंपरागत,पोंगापंथी,ढकोसला
जैसे शब्दों की आहुति देकर
"आधुनिका"के
शाब्दिक ओज से गर्विता
सभी वर्जनाओं को तोड़कर
स्त्री स्वतंत्रता की गढी गयी परिभाषाएँ,
पुरुषों के समकक्ष खड़ी स्त्री
माँ-दादी-नानी,बुआ-चाची
भाभी-ताई के द्वारा डाली गयी
खादभरी माटी में
मन के जड़ में रोपी गयी
संस्कार,परंपराओं की
बीज से पनपी बेलों से
एक आध डाली या
कुछ पत्तियाँ
तोड़कर भले ही फेंक दे
पर जड़ से इतर पुष्पित
कैसे हो सकती है?
एक स्त्री के लिए
व्रत,उपवास मात्र
औपचारिकता नहीं
पति मात्र एक चुटकी सिंदूर नहीं होता
संपूर्ण जीवन को जीने का
एक कारण होता है
अपने दैनिक जीवन में
आधुनिक सारे तर्क को
मन से परे हटाकर
जानती है कि उसके
माँग में सिंदूर भरने या
या व्रत करने से
पति की उम्र का कोई लेना-देना नहीं....
पर वो जानती है
अपने सच्चे मन से की गयी
प्रार्थना की अलौकिक अनुभूति को
अपने मन के प्रेम की शक्ति को,
निर्जल रहकर, करती है सजल
भाव से मनौतियाँ
बाँधती है मौली के कच्चे धागों में
अधपके,अधूरे स्वप्न,
काल के अनदेखे पहियों पर,
एकाग्रचित अपने साँस में जपती
अपने आशाओं और सुख की माला
तिरोहित कर बराबरी का अधिकार
आत्मा से साक्षात्कार करती
जीवन के गूढ़ गाँठों को सुलझाती
अपने समर्पित प्रेम की ज्योति से
दिपदिपाना चाहती है
अपने मन के पुरुष के साथ आजीवन।
#श्वेता सिन्हा
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति..
ReplyDeleteजो नास्तिक होने का दम्भ भरते/भरती हैं वे पूर्णतया ढ़कोसला करते/करती हैं..
भावों की सुंदर प्रस्तुति, स्त्री के सभी रूप स्वीकार्य अपने चाहिए फ़िर वह चाहे आस्तिक परंपराओं में रमी पति और परिवार को अपना संसार समझने वाली हो या नास्तिक आधुनिका जो किसी भी आडंबर से पूर्णतः विलग हो। जो स्वयं में संसार और संसार में स्वयं की तलाश में हो उसे भी।
ReplyDeleteसुंदर कविता
सादर
बहुत सुन्दर और भाव प्रवण।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..बुद्धि और आध्यात्म का अद्भुत समन्वय लिए भाव प्रवण अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteअंतर तक पैठे संस्कार जब अहसासो से गूंथ जाते हैं तो परमपराएं स्वतः आचरण का हिस्सा बन जाती है आस्था का कोई नाम नहीं होता आस्था बस मन के आंगन की कुनकुनी धूप होती है तो सर्दी के मौसम में कितनी प्यारी होती है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन आपका श्वेता
अनुपम अभिनव।
रक्तशिरा में अंधपरम्परा के अन्धकार का बहता आस्था-मोह और
ReplyDeleteरक्तधमनियों में आधुनिकता व विज्ञान के प्रकाश का बहता यथार्थ - दोनों के बीच फंसा मासूम मानव-मन और उस से उपजी ये रचना ... बेशक़ आस्तिकों के मर्म को सहलाती हुई ...
पर ढकोसलाविहीन , आडम्बरमुक्त, अंधपरम्परामुक्त, दम्भहीन, स्वघोषित आस्तिकों से एक अदना सा सवाल -
(1) वे अपनी आस्तिकता से लिप्त बातें या रचनाएं जिस मोबाइल या कंप्यूटर में लिखती/लिखते हैं और फिर पोस्ट करते/करती हैं वे दोनों समान किस भगवान की फैक्ट्री में पहली बार बना था या आज बन रहा है - तथाकथित चित्रगुप्त भगवान के या विश्वकर्मा भगवान के !???
(2) उनकी आस्तिकता अगर "कुछ वैसे लोगों" के उपर हावी होती तो दम्भहीन आस्तिकजन आज LED की रोशनी से, AC की ठंडक से, Car की सवारी से, मोबाइल की गुफ़्तगू , हवाई या रेल यात्रा से वंचित रह जातीं/जाते या नहीं !???
(3) आस्तिकतायुक्त ढकोसलाविहीन लोगों ने देवता-विशेष के हाथ में कंडे के कलम और दवात, दो शादियाँ, बारह बच्चों की फ़ौज देखी/देखा है; पर क्या कंप्यूटर या मोबाइल देखी/देखा है!!!??? .....
सवाल तो और भी हैं ढकोसलाविहीन आस्तिकों से .... फिर कभी फ़ुर्सत से ...
बहुत सुंदर रचना श्वेता जी
ReplyDeleteबाँधती है मौली के कच्चे धागों में
ReplyDeleteअधपके,अधूरे स्वप्न,
काल के अनदेखे पहियों पर,
एकाग्रचित अपने साँस में जपती
अपने आशाओं और सुख की माला
तिरोहित कर बराबरी का अधिकार
भावपूर्ण निबन्ध काव्य प्रिय श्वेता ! औरत के सर्वस्व समर्पण ने पुरुष के व्यक्तित्व को पूर्णता और गरिमा प्रदान की है | बिना किसी प्रत्यासा के एक नारी जुटी रहती है अपने कर्तव्य निर्वहन में | और से ढकोसला कहने वाली अपनी नजर है | जिसकी रही भावना जैसी ! तीज की हार्दिक शुभकामनायें और बधाई | तुम्हारा सौभाग्य अटल हो यही कामना और दुआ है | सस्नेह --
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-09-2019) को "दो घूँट हाला" (चर्चा अंक- 3448) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सहमत आपकी बात से ... कई लोग रूड़ियां कह के बहुत सी बातों को जुठ्लाते हैं पर ये भूल जाते हैं की कई बार अपने आपको संबल देने के लिए ... अपने आचरण की शुद्धि, मन की शान्ति के लिए या किसी भी कारण से कुछ करने के लिए कोई बाध्य नहीं होता ... हाँ थोपना बुरा है ... मन न चाहे तो नहीं करना चाहिए ... और मन कहे तो सब अच्छा ...
ReplyDeleteअच्छी और गहरी रचना है ...
वाह बहुत सुंदर आदरणीया दीदी जी
ReplyDeleteसादर नमन
वाह बेहतरीन रचना श्वेता।आधुनिक बनने के चक्कर में आजकल लोग अपनी पुरानी परम्पराओं को ढ़ोग- ढकोसला का जामा पहनाकर छोड़ते चले जा रहे हैं।न किसी के एहसासों की परवाह करते हैं न भावनाओं की। तीज की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं अखण्ड सौभाग्वती का आशीष।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteलोग अपनी पुरानी परम्पराओं को ढ़ोग- ढकोसला का जामा पहनाकर छोड़ते चले जा रहे हैं
ReplyDeleteमाँग में सिंदूर भरने या
ReplyDeleteया व्रत करने से
पति की उम्र का कोई लेना-देना नहीं....
पर वो जानती है
अपने सच्चे मन से की गयी
प्रार्थना की अलौकिक अनुभूति को
अपने मन के प्रेम की शक्ति को,
निर्जल रहकर, करती है सजल
भाव से मनौतियाँ
बाँधती है मौली के कच्चे धागों में
और यही विश्वास एक अलौकिक शक्ति बनकर बना देता है उसे शक्तिस्वरूपा...
बहुत ही लाजवाब सृजन।
वाह!!!