गर्व सृजन का पाया
बीज प्रेम अंकुराया
कर अस्तित्व अनुभूति
सुरभित मन मुस्काया
स्पंदन स्नेहिल प्यारा
प्रथम स्पर्श तुम्हारा
माँ हूँ मैं,बिटिया मेरी
तूने यह बोध कराया
रोम-रोम ममत्व कस्तूरी
जीवन की मेरी तुम धुरी
चिड़िया आँगन किलकी
ऋतु मधुमास घर आया
तुतलाती प्रश्नों की लड़ी
मधु पराग फूलों की झड़ी
"माँ" कहकर बिटिया मेरी
माँ हूँ यह बोध कराया
नन्हें पाँव की थाप से डोले
रूनझुन भू की वीणा बोले
थम समीर छवि देखे तेरी
ठिठका इंद्रधनुष भरमाया
जीवन पथ पर थामे हाथ
भरती डग विश्वास के साथ
शक्ति स्वरुपा कहकर बिटिया
"माँ" का सम्मान बढ़ाया
आशीष को मन्नत माने तू
सानिध्य स्वर्ग सा जाने तू
उज्जल,निर्मल शुभ्र लगूँ
मुझे गंगा पावन बतलाया
जगबंधन सृष्टि क्या जाने तू?
आँचल भर दुनिया माने तू
स्त्रीत्व पूर्ण तुझसे बिटिया
माँ हूँ मैं, तूने ही बोध कराया
--श्वेता सिन्हा
sweta sinha जी बधाई हो!,
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बेहद खूबसूरत रचना ममतामयी भावों से स्पंदित
ReplyDeleteसादर आभार अभिलाषा जी।
Deleteहृदय से आभार आपकी त्वरित प्रतिक्रिया के लिए।
आपकी ये बेहतरीन रचना कल दिनांक 4नवम्बर 2018 को पाँच लिंको का आनन्द में साझा की जाएगी...धन्यवाद
ReplyDeleteसादर आभार दी:)
Deleteपाँच लिंक में रचना शामिल होना हमेशा आनंदित करता है।
आपके स्नेह के लिए कोई शब्द नहीं है।
आशीष बनाये रखे दी।
सादर।
वाह स्वेता जी
ReplyDeleteमाँ को यू तो परिभाषित करना नामुमकिन हैं किंतु अपने जिन शब्दों में भावनाओ को व्यक्त किया हैं वो स्वमं में अदभुत हैं-
नन्हें पाँव की थाप से डोले
रूनझुन भू की वीणा बोले
थम समीर छवि देखे तेरी
ठिठका इंद्रधनुष भरमाया
लाजवाब
बहुत प्यारी कविता
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा...बहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteश्वेता दी, माँ की ममता और महानता का बहुत ही सुंदर वर्णन किया हैं आपने।
ReplyDeleteवाह वाह अप्रतिम श्वेता अल्फाज़ों के परे!
ReplyDeleteएक कली चटकी खुशबु उठी फिजाओं में
बोल उठी लचक के टहनी नाजुक मां हूं मैं।
माँ होने का बोध कराया साथ ही जीने के वजह दी
ReplyDeleteजिन्दगी में तब से उम्मीदों की बगिया महकी..
प्यारी बिटिया का एहसान है माँ पर...माँ की ममता को जिसने जगाया...मेरे मन के भावों को खूबसूरत काव्य मिला आपकी लाजवाब लेखनी से...साधुवाद श्वेता जी...बहुत ही शानदार भावाभिव्यक्ति...
वाह!!!
बहुत ही सुन्दर रचना सखी 👌
ReplyDeleteधन्य होती हैं माए जो रचती हैं सृष्टि और फिर वो सृष्टि स्वयं रचियता को उसके अंतस, उसके धातु होने का अहसास करती है ... बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना ...
ReplyDeleteवाह!!श्वेता ,बहुत सुंदरभावों से सजी रचना ।
ReplyDeleteबहुत उम्दा सृजन
ReplyDeleteमाँ ही प्रकृति है, माँ ही धरा है
प्रणाम
दीपोत्सव की अनंत मंगलकामनाएं !!
ReplyDeleteजगबंधन सृष्टि क्या जाने तू?
ReplyDeleteआँचल भर दुनिया माने तू
स्त्रीत्व पूर्ण तुझसे बिटिया
माँ हूँ मैं, तूने ही बोध कराया.... नमन आपके उदात्त भावों को!
Very nice माँ ही धरा है
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