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Wednesday, 10 June 2020

क्या तुम नहीं डरते?


सुनो ओ!जंगल के दावेदारों
विकास के नाम पर
लालच और स्वार्थ की कुल्हाड़ी लिए
तुम्हारी जड़ को 
धीरे-धीरे बंजर करते,
तुम्हारी आँखों में सपने भरकर
संपदा से भरी भूमि को
कंक्रीट में बदलते,
हवा में फैले जंगली फूलों की  
सुगंध सोखकर,
धान के खेतों में
कारखानों की चिमनी का ज़हरीला धुँआ
रोपने वाले "दिकुओं" 
के झाँसे में आकर 
अपने गाँव को
शहर बनाने की होड़ में
माटी की खुशबू
मत बेचो।

शिक्षा-स्वास्थ्य और संस्कृति के लिए
किया गया 
उलगुलान का संकल्प बिसराकर 
 बारूद और कारतूस के बल पर
निर्दोषों के खून माटी में सानकर
तुम अपने अधिकार नहीं
उपजा पाओगे,
मत सोचो कि
भटककर बीहड़ में
तुम क्रांतिदूत बन अंधविश्वास
और पिछड़ेपन से
से समाज को उबार लोगे...!

शहरी चकाचौंध के आकर्षण में
 कठपुतली बन 
 स्वार्थी जनप्रतिनिधियों,
चालक माफियाओं,व्यापारियों
 बहेलिये के जाल में फँसकर
अपनी मासूमियत का सौदा मत करो
जंगल-जमीन सौंपकर
मान-सम्मान गिरवी रखकर
सुविधायुक्त जीवन की लालसा में 
लुप्त होती जनजातियों के वंश बीज  
अपने पूर्वजों की आत्मा का गीत
मत नष्ट करो।

जंगल सूना करके
रोता छोड़कर 
गलियाँ,ताल,वृक्षों की बाहें
आधुनिकता की होड़ में
अपने रक्त के ईंधन से
शहर के चौराहे जगमगाकर
हड्डियाँ गलाकर बनाकर
विकास का लुभावना ढाँचा 
स्वाभिमान गँवाकर
शहरी बगुलों के व्यवहार से विस्मित
मिलनसारिता भुलाकर
भीड़ के विचित्र व्यवहार से
 अकबका कर
अपनी " प्रकृति माँ" की स्मृतियों से विह्वल
थके-हारे जब लौटोगे 
अजनबी गंध देह में लपेटकर
तुम्हें नहीं पहचानेंगी 
कटे हुए जंगल की हवाएँ,
धुएँ से काली हो चुकी बेजान माटी
तुमसे लिपटकर नहीं खेलेगी
लौटकर वापस नहीं आयेंगी
पठार विहीन मैदान के 
उसपार गुम हो जायेंगी तुम्हारी
आवाज़
रेत पीकर मरती नदियाँ
सूखे पत्थर  पर पड़े 
झरनों के निशान
कीचड़ भरे ताल में 
अंतिम साँस लेती कुमुदिनी
सभी के प्रश्नों के उत्तर
तुम कैसे दे पाओगे?

पाकड़,शीशम के जड़
खोदने के पहले
करम,साल की शाख़
रेतने के पहले 
सोचो न एक बार 
सरहुल,टुसू,करमा,
 लोकपर्वों के अवसर पर
नव परिधान से सज्ज
सरई की खुशबू से
मताया जंगल
टकटक लाल ढाक
जूड़े में खोंसकर
मांदर की थाप पर 
महुआ गंध में डूबकर
 थिरकते पाँव,
लोकगीतों की मिठास
में पगा पीठा, हड़िया,
करील का अचार 
खाते-पीते नाचते-गाते
परिचत,सम्बन्धियों,मित्रों से
ताल मिलाती कोयल की कूक
मुर्गियों बतखों की चूँ-चूँँ से
खिलखिलाते खलिहान,
फल-फूल और अनाज
से भरा-पूरा होने का
संपन्नता का आशीष देने वाली
प्रकृति माँ को पूजने के लिए
सखुआ का पेड़
बहनों के नेह में गूँथी
करम की डालियाँ
फिर कहाँ पाओगे?
तुम भूल गये कैसे
"धरती आबा" को दिया वचन?
क्या तुम नहीं डरते हो 
अब प्रकृति के शाप से?

©श्वेता सिन्हा
१० जून २०२०





Thursday, 1 August 2019

साधारण स्त्री


करारी कचौरियाँ,
मावा वाली गुझिया,
रसदार मालपुआ,
खुशबूदार पुलाव,
चटपटे चाट,
तरह-तरह के 
व्यंजन चाव से सीखती
क्योंकि उसे बताया गया है
"आदमी के दिल तक पहुँचने का रास्ता
उसके पेट से होकर जाता है।"

काजल,बिंदी,नेलपॉलिश,
लिपिस्टिक के नये शेड्स
मेंहदी के बेलबूटे काढ़ती
रंगीन चूडियों,पायलों,झुमकों
के नये डिजाइन 
सुंदर कपड़ों के साथ मैचिंग करती
फेशियल,ब्लीच,ख़ुद को निखारने
के घरेलू नुस्खों
का प्रयोग सीखती है
क्योंकि अपने सौंदर्य के
सरस सागर में डूबोकर 
लुभाकर विविध उपक्रमों से
वो कहलायेगी पतिप्रिया
एक खूबसूरत औरत....।

भाभी,मामी,चाची,बुआ और
अड़ोस-पड़ोस के बच्चे
प्यार-दुलार से सँभालती
तीज-त्योहार के नियम 
व्रत-पूजा की बारीकियाँ
चुन्नी के छोर में गाँठ बाँधती 
देवी-देवताओं को
मंत्रों से साधती
क्योंकि एक सुघढ़,संस्कारी 
पत्नी,बहू और माँ
पतिव्रता औरत बनना ही
उसके स्त्री जीवन की
सफलता है।

एक साधारण स्त्री
अपने सामान्य जीवन में
अपनी आँखों के कटोरे में
भरती है छुटपने से ही
पढ़-लिखकर ब्याहकर 
एक छोटे से सजे-धजे घर में
दो-चार जोड़ी बढ़िया कपड़े पहन,
पाँच जडा़ऊ गहने लादे
दो गुलथुल बच्चे के नखरे उठाती
पति के आगे-पीछे घूमती
पूरी ज़िंदगी गुजार देने का
असाधारण-सा ख़्वाब 
क्योंकि एक साधारण औरत के
जीवन के स्वप्न का हर धागा
बँधा होता है 
पुरुष के सशक्त व्यक्तित्व में
सदियों पहले ठोंके गये
बड़ी-बड़ी मजबूत कीलों के साथ।

#श्वेता सिन्हा





मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...