मौन दिन के उदास पन्नों पर
एक अधूरी कहानी लिखते वक़्त
उदास आँखों की गीली कोर
पोंछकर उंगली के पोर से
हथेलियों पर फैलाकर एहसास को,
अनायास ही मुस्कुरा देती हूँ।
नहीं बदलना चाहती परिदृश्य
मासूम सपनों को संभावनाओं के
डोर से लटकाये जागती हूँ
बावजूद सच जानते हुये
रिस-रिसकर ख़्वाब एक दिन
ज़िंदा आँखों में क़ब्र बन जायेंगे
हाँ..!जानती तो हूँ मैं
सपने और हक़ीक़त के
बीच के फर्क़ और फ़ासले
अनदेखा करती उलझे प्रश्न
नहीं चाहती कोई हस्तक्षेप
तुम्हारे ख़्याल और ...
मेरे मन के बीच.....।
#श्वेता सिन्हा