मौन दिन के उदास पन्नों पर
एक अधूरी कहानी लिखते वक़्त
उदास आँखों की गीली कोर
पोंछकर उंगली के पोर से
हथेलियों पर फैलाकर एहसास को,
अनायास ही मुस्कुरा देती हूँ।
नहीं बदलना चाहती परिदृश्य
मासूम सपनों को संभावनाओं के
डोर से लटकाये जागती हूँ
बावजूद सच जानते हुये
रिस-रिसकर ख़्वाब एक दिन
ज़िंदा आँखों में क़ब्र बन जायेंगे
हाँ..!जानती तो हूँ मैं
सपने और हक़ीक़त के
बीच के फर्क़ और फ़ासले
अनदेखा करती उलझे प्रश्न
नहीं चाहती कोई हस्तक्षेप
तुम्हारे ख़्याल और ...
मेरे मन के बीच.....।
#श्वेता सिन्हा
पढ़ कर आपके उद्दगार
ReplyDeleteये हवाऐं भी नम हो जाती है
बेताब लहरें सागर को लांघ जाना चाहती है
कहो क्यों एक कसक सी छोड़ जाती है?
वाह्ह्ह वआह्ह्¡¡¡
बहुत खूबसूरत..., एक कसक का अहसास लेकिन लाजवाब सृजन ।
ReplyDeleteमन में उमड़ते ख़्याल और सपनों की हक़ीक़त पर कश्मकश को शिद्दत के साथ अभिव्यक्त किया गया है। सुन्दर रचना।
ReplyDeleteवाह!! बहुत खूब, लाजबाव, श्वेता जी
ReplyDeleteसुंदर भावात्मक सृजन
ReplyDeleteसच सपने और हकीकत में बहुत फर्क होता है।संवेदना की सुंदर अभिव्यक्ति किया है।सराहनीय
ReplyDeleteकई बार जो होता है उसी में जीना चाहता है इंसान ... नहीं बदन चाहता कुछ भी ... वाही स्वप्न वाही हकीकत ...
ReplyDeleteगहरी रचना ...
हाँ..!जानती तो हूँ मैं
ReplyDeleteसपने और हक़ीक़त के
बीच के फर्क़ और फ़ासले
अनदेखा करती उलझे प्रश्न
नहीं चाहती कोई हस्तक्षेप
तुम्हारे ख़्याल और ...
मेरे मन के बीच.....।
मन के रिश्तों को पुनः अवलोकित कराती यह रचना पुनः उस ओर ले जाने को विवश करती है। निर्निमेष अब देखती है उस ओर, पर सिर्फ निर्जन है इक वियावान है उस ओर...
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ श्वेता जी।
बहुत सुंदर रचना 👌
ReplyDeleteनहीं बदलना चाहती परिदृश्य
ReplyDeleteमासूम सपनों को संभावनाओं के
डोर से लटकाये जागती हूँ
बावजूद सच जानते हुये
रिस-रिसकर ख़्वाब एक दिन
ज़िंदा आँखों में क़ब्र बन जायेंगे
हकीकत से दूर सपनों में ही सही उम्मीदों के सहारे गुजर गया जो जीवन तो ठीक ही है न.....
ऐसी स्थिति में सच और हकीकत में जीना आसान भी तो नहीं ...।बहुत ही लाजवाब....।
वाह
ReplyDeleteवाह। बहुत सुन्दर।
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