Monday, 13 May 2019

जानती हूँ....

मौन दिन के उदास पन्नों पर
एक अधूरी कहानी लिखते वक़्त
उदास आँखों की गीली कोर 
पोंछकर उंगली के पोर से
हथेलियों पर फैलाकर एहसास को,
अनायास ही मुस्कुरा देती हूँ।

नहीं बदलना चाहती परिदृश्य 
मासूम सपनों को संभावनाओं के
डोर से लटकाये जागती हूँ 
बावजूद सच जानते हुये 
रिस-रिसकर ख़्वाब एक दिन
ज़िंदा आँखों में क़ब्र बन जायेंगे

हाँ..!जानती तो हूँ मैं 
सपने और हक़ीक़त के 
बीच के फर्क़ और फ़ासले
अनदेखा करती उलझे प्रश्न
नहीं चाहती कोई हस्तक्षेप
तुम्हारे ख़्याल और ...
मेरे मन के बीच.....।

#श्वेता सिन्हा

12 comments:

  1. पढ़ कर आपके उद्दगार
    ये हवाऐं भी नम हो जाती है
    बेताब लहरें सागर को लांघ जाना चाहती है
    कहो क्यों एक कसक सी छोड़ जाती है?
    वाह्ह्ह वआह्ह्¡¡¡

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  2. बहुत खूबसूरत..., एक कसक का अहसास लेकिन लाजवाब सृजन ।

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  3. मन में उमड़ते ख़्याल और सपनों की हक़ीक़त पर कश्मकश को शिद्दत के साथ अभिव्यक्त किया गया है। सुन्दर रचना।

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  4. वाह!! बहुत खूब, लाजबाव, श्वेता जी

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  5. सुंदर भावात्मक सृजन

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  6. सच सपने और हकीकत में बहुत फर्क होता है।संवेदना की सुंदर अभिव्यक्ति किया है।सराहनीय

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  7. कई बार जो होता है उसी में जीना चाहता है इंसान ... नहीं बदन चाहता कुछ भी ... वाही स्वप्न वाही हकीकत ...
    गहरी रचना ...

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  8. हाँ..!जानती तो हूँ मैं
    सपने और हक़ीक़त के
    बीच के फर्क़ और फ़ासले
    अनदेखा करती उलझे प्रश्न
    नहीं चाहती कोई हस्तक्षेप
    तुम्हारे ख़्याल और ...
    मेरे मन के बीच.....।
    मन के रिश्तों को पुनः अवलोकित कराती यह रचना पुनः उस ओर ले जाने को विवश करती है। निर्निमेष अब देखती है उस ओर, पर सिर्फ निर्जन है इक वियावान है उस ओर...
    बहुत-बहुत शुभकामनाएँ श्वेता जी।

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  9. बहुत सुंदर रचना 👌

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  10. नहीं बदलना चाहती परिदृश्य
    मासूम सपनों को संभावनाओं के
    डोर से लटकाये जागती हूँ
    बावजूद सच जानते हुये
    रिस-रिसकर ख़्वाब एक दिन
    ज़िंदा आँखों में क़ब्र बन जायेंगे
    हकीकत से दूर सपनों में ही सही उम्मीदों के सहारे गुजर गया जो जीवन तो ठीक ही है न.....
    ऐसी स्थिति में सच और हकीकत में जीना आसान भी तो नहीं ...।बहुत ही लाजवाब....।

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  11. वाह। बहुत सुन्दर।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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