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Saturday, 4 April 2020

धर्म...संकटकाल में


हृदय में बहती
स्वच्छ धमनियों में
किर्चियाँ नफ़रत की
घुलती हैं जब, 
विषैली,महीन,
नसों की
नरम दीवारों से
रगड़ाकर
घायल कर देती हैं
संवेदना की मुलायम 
परतों को,
 फट जाती हैं
 लहूलुहान
 रक्तवाहिनियाँ 
 वमन करते हैं
विचारों का दूषित गरल
खखारकर थूकते हैं लोग
सेवारत मानवता के
सफेद कोट,
ख़ाकी वर्दियों पर...
देवदूतों के फेफड़ों में
भरना चाहते हैं
संक्रमित कीटाणु,
नीचता संगठित होकर
अपने धर्मग्रंथों के
पन्नों को फाड़कर
कूड़ेदानों,पीकदानों
में विसर्जित कर
मिटा देना चाहती हैं
जलाकर भस्म 
कर देना चाहती है
धर्म की सही परिभाषा।

अपनी मातृभूमि के
संकटकाल में
अपने सम्प्रदाय की
श्रेष्ठता सिद्ध करने में
इतिहास में
क्रूरता के अध्याय जोड़ते
रीढ़विहीन मनुष्यों की
प्रजातियों के
लज्जाजनक कर्म,
कालक्रम में 
नस्लों द्वारा जब
खोदे जायेंंगे
थूके गये 
रक्तरंजित धब्बों की
सूखी पपड़ीदार 
निशानियों को
 चौराहों पर
प्रश्नों के ढेर पर
बैठाकर
अमानुषिक,अमानवीय
कृतित्वों को 
उन्हीं के वंशजों द्वारा
एक दिन अवश्य
धिक्कारा जायेगा!
किसी देश के
 सच्चे नागरिक की
धर्म की परिभाषा
मनुष्यता का कर्तव्य
और कर्मठता है,
साम्प्रदायिक जुगाली नहीं।

#श्वेता सिन्हा

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