सोचती हूँ
कौन सा धर्म
विचारों की संकीर्णता
की बातें सिखलाता है?
सभ्यता के
विकास के साथ
मानसिकता का स्तर
शर्मसार करता जाता है।
धर्मनिरपेक्षता
शाब्दिक स्वप्न मात्र
नियम -कायदों के पृष्ठों में
दबकर कराहता है।
धर्म पताका
धर्म के नाम का
धर्म का ठेकेदार
तिरंगें से ऊँचा फहराता है।
शांति सौहार्द्र की
डींगें हाँकने वाला
साम्प्रदायिकता की गाड़ी में
अमन-चैन ढुलवाता है।
अभिमान में स्व के
रौंदकर इंसानियत
निर्मम अट्टहास कर
धर्मवीर तमगा पा इठलाता है।
जीवन-चक्र
समझ न नादां
कर्मों का खाता,बाद तेरे
जग में रह-रह के पलटा जाता है।
मज़हबों के ढेर से
इंसानों को अलग कर देखो
धर्म की हर एक किताब में
इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाता है।
-श्वेता सिन्हा