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Wednesday, 14 February 2018

निषिद्ध प्रेम नहीं


स्मृति पीड़ा की अमरबेल
मन से बिसराना चाहती हूँ मैं
न भाये जग के कोलाहल 
प्रियतम,मुस्काना चाहती हूँ मैं

मौसम की मधुमय प्रीति
मलज की भीनी सरिता से 
उपेक्षित हिय सकोरे भर
तृष तृप्ति पाना चाहती हूँ मैं

जीवन के अधंड़ में बिखरी
हुई भावहीन मन की शाखें
तुम ला दो न फिर से बसंत
न,ठूँठ नहीं रहना चाहती हूँ मैं

कर के अभिनय पाषाणों की
मौन हो तिल-तिल मिटती रही
तुम फूट पड़ो बनकर निर्झर
तुम संग बहना चाहती हूँ मैं

प्रभु ध्यान धरुँ तो धरुँ कैसे
तुम आते दृगपट में झट से
है पूजा में निषिद्ध प्रेम नहीं
तो प्रीत ही जपना चाहती हूँ मैं

  #श्वेता🍁

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मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...