स्मृति पीड़ा की अमरबेल
मन से बिसराना चाहती हूँ मैं
न भाये जग के कोलाहल
प्रियतम,मुस्काना चाहती हूँ मैं
मौसम की मधुमय प्रीति
मलज की भीनी सरिता से
उपेक्षित हिय सकोरे भर
तृष तृप्ति पाना चाहती हूँ मैं
जीवन के अधंड़ में बिखरी
हुई भावहीन मन की शाखें
तुम ला दो न फिर से बसंत
न,ठूँठ नहीं रहना चाहती हूँ मैं
कर के अभिनय पाषाणों की
मौन हो तिल-तिल मिटती रही
तुम फूट पड़ो बनकर निर्झर
तुम संग बहना चाहती हूँ मैं
प्रभु ध्यान धरुँ तो धरुँ कैसे
तुम आते दृगपट में झट से
है पूजा में निषिद्ध प्रेम नहीं
तो प्रीत ही जपना चाहती हूँ मैं
#श्वेता🍁
वाह! बहुत सुंदर!!!
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका विश्वमोहन जी।
Deleteबहुत दिन बाद आपकी प्रतिक्रिया पाकर मन प्रसन्न हुआ।
बहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका लोकेश जी।
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.02.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2881 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteप्रेम भाव की बहुत ही सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार तहेदिल से शुक्रिया आपका वंदना जी।
Deleteशाख पर बन नव कोंपल
ReplyDeleteमुस्कुराना चाहती हूं मैं
बन के मोती बरखा के
धरा पे बिखरना चाहती हूं मै।
वाह वाह श्वेता बहुत सुंदर मनोभाव एक चिर सुख का आत्मानंद।
मौन याचना की स्वर लहरियों संग धीमें धीमें दिल में उतरती खुबसूरत रचना ..मन को भा गई.. बधाई आपको..!!
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत रचना, स्वेता।
ReplyDeleteकुछ पा लेने की छटपटाहट को आकार देती रचना
ReplyDeleteश्वेता जी,
ReplyDeleteशब्द भंडार से भरी भावपूर्ण साहित्यिक रचना. एक आग्रह है, इसे एक बार लेख टूटते बंधन से निहारकर देखिए.
अयंगर
बहुत ही सुंदर भावों भरी रचना श्वेता जी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर👌👌👌
ReplyDeleteबहुत खूब !!!
सुंदर शब्द शिल्प से अलंकृत लालित्य और भावों का अनुपम संगम
ReplyDeleteस्मृति पीड़ा की अमरबेल
ReplyDeleteमन से बिसराना चाहती हूँ मैं
न भाये जग के कोलाहल
प्रियतम,मुस्काना चाहती हूँ मैं
आपकी बेहतरीन रचनाओं में शायद यह सबसे प्रभावशाली रचना है यह। बधाई आदरणीय श्वेता जी। मन आनंदित हो गया।
बहुत सुन्दर कविता है
ReplyDeleteवाह! बहुत सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteप्रीत ही तो पूजा भी है ध्यान भी है ...
ReplyDeleteमुस्कान जीवन है जो मधुरता लाता है ... भावपूर्ण रचना है बहुत ...