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Saturday, 18 August 2018

भावों का ज्वार


गहराती ,
ढलती शाम
और ये तन्हाई
बादलों से चू कर
 नमी पलकों में भर आई।

गीला मौसम,
गीला आँगन,
गीला मन मतवारा
संझा-बाती,
रोयी पीली,
बहती अविरल धारा।

भावों का ज्वार,
उफनता,
निरर्थक है आवेश,
पारा प्रेम का,
ढुलमुलाता,
नियंत्रित सीमा प्रदेश।

तम वाहिनी साँझ,
मार्गदर्शक 
चमकीला तारा
भावनाओं के नागपाश
 उलझा बटोही पंथ हारा।

नभ की झील,
निर्जन तट पर,
स्वयं का साक्षात्कार
छाया विहीन देह,
 तम में विलीन निराकार।

मौन की शिराओं में,
बस अर्थपूर्ण 
मौन शेष,
आत्मा के कंधे पर,
ढो रहा तन छद्म वेष।

-श्वेता सिन्हा





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