मज़दूर का नाम आते ही
एक छवि ज़ेहन में बनती है
दो बलिष्ठ भुजाएँ दो मज़बूत पाँव
बिना चेहरे का एक धड़,
और एक पारंपरिक सोच,
बहुत मज़बूत होता है एक मज़दूर
कुछ भी असंभव नहीं
शारीरिक श्रम का कोई
भी काम सहज कर सकता है
यही सोचते हम सब,
हाड़ तोड़ मेहनत की मज़दूरी
के लिये मालिकों की जी-हुज़ूरी करते
पूरे दिन ख़ून-पसीना बहाकर
चंद रुपयों की तनख़्वाह
अपर्याप्त दिहाड़ी से संतुष्ट
जिससे साँसें खींचनेभर
गुज़ारा होता है
उदास पत्नी,बिलखते बच्चे
बूढ़े माता-पिता का बोझ ढोते
जीने को मजबूर
एक ज़मीन को बहुमंजिला
इमारतों में तब्दील करता
अनगिनत लोगों के ख़्वाबों
की छत बनाता
मज़दूर,जिसके सर पर
मौसम की मार से बचने को
टूटा छप्पर होता है
गली-मुहल्ले,शहरों को
क्लीन सिटी बनाते
गटर साफ़ करते,कड़कती धूप में
सड़कों पर चारकोल उड़ेलते,
कल-कारखानों में हड्डियाँ गलाते
सँकरी पाताल खदानों में
जान हथेली पर लिये
अनवरत काम करते मज़दूर
अपने जीवन के कैनवास पर
छैनी-हथौड़ी,कुदाल,जेनी,तसला
से कठोर रंग भरते,
सुबह से साँझ तक झुलसाते हैं,
स्वयं को कठोर परिश्रम की
आग में,ताकि पककर मिल सके
दो सूखी रोटियों की दिहाड़ी
का असीम सुख।
#श्वेता सिन्हा