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Tuesday, 26 May 2020

व्याकुल मीन


रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।
मौन अबूझ संकेतों की,
भाषा पढ़-पढ़ बौराता है।

प्रश्नों की खींचातानी से
मितवा आँखें जाती भीग,
नेह का बिरवा सूखे न
मनवा तू अंसुवन से सींच,
साँस महक कस्तूरी-सी , 
अब गंध जीया नहीं जाता है। 

रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।

दिन-दिनभर कूहके कूहू
विरह वेदना लहकाती,
भीतर-भीतर सुलगे चंदन
स्वप्न भभूति लिपटाती,
संगीत बना उर का रोदन
जोगी मन तुम्हें मनाता है।

रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।

जग का खारापन पीती रही
स्वाति बूँद की आस लिए,
जीवन लहरों-सा जीती रही
सीप मोती की प्यास लिए,
व्याकुल मीन नेहसिक्त मलंग
चिरशांति समाधि चाहता है।

रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।

©श्वेता सिन्हा

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