वक़्त के अजायबघर में
अतीत और वर्तमान
प्रदर्शनी में साथ लगाये गये हैं-
ऐसे वक़्त में
जब नब्ज़ ज़िंदगी की
टटोलने पर मिलती नहीं,
साँसें डरी-सहमी
हादसों की तमाशबीन-सी
दर्शक दीर्घा में टिकती नहीं,
ज़िंदगी का हर स्वाद
खारेपन में तबदील होने लगा
मुस्कान होंठो पर दिखती नहीं,
नींद के इंतज़ार में
करवट बदलते सपने
रात सुकून से कटती नहीं,
पर फिर भी कभी किसी दिन
ऐसे वक़्त में...
चौराहे पर खड़ा वक़्त
राह भटका मुसाफ़िर-सा,
रात ज़िंदगी की अंधेरों में
भोर की किरणें टटोल ही लेगा...,
वक़्त के पिंजरे में
बेबस छटपटाते हालात,
उड़ान की हसरत में
फड़फड़ाकर पंख खोल ही लेगें...,
मरूस्थली सुरंग के
दूसरी छोर की यात्रा में
हाँफते ऊँटों पर लदा,बोझिल दर्द
मुस्कुराकर बोल ही पड़ेगा...,
उदासियों के कबाड़
शोकगीतों के ढेर पर चढ़कर
ऐ ज़िंदगी! तेरी इक आहट
उम्मीदों की चिटकनी खोल ही देगी...।
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#श्वेता सिन्हा
१७ अप्रैल २०२१