Sunday, 30 April 2017

तुम्हारा एहसास

जाने क्यूँ
अवश हुआ
जाता है मन
खींचा जा रहा
तुम्हारी ओर
बिन डोर
तितलियों के
रंगीन पंखों
पर उड़ता
विस्तृत आसमां
पर तुम्हें छूकर
आयी हवाओं के
संग बहा जा रहा है
कस्तूरी सा व्याकुल
मन अपने में गुम
मदमस्त
पीकर मधु रस
तुम्हारे एहसास का,
बूँद बूँद पिघल रहा है
अन्तर्मन के शून्य में,
अमृत सरित तुम
बरसों से सूखे पडे़
वीरानियों में सोये
शिलाखंड को
तृप्त कर रहे हो
और शिलाखंड
अमृत सरित के
कोमल स्पर्श से
घुल रहा है
अवश होकर
धारा के प्रवाह में
विलीन हर क्षण
हर उस पल को
समाहित करता
जिसमें तुम्हारा
संदली एहसास
समाया हुआ है।

    #श्वेता🍁


10 comments:

  1. प्रेम की लहरों पे सवार मन और कर भी क्या सकता है ...

    ReplyDelete
  2. जी...बहुत आभार शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया के लिए।

    ReplyDelete
  3. Replies
    1. बहुत आभार शुक्रिया आपका जी

      Delete
  4. बेहतरीन कविता। अंतर्मन की, प्रेम में विह्ल मनोदशा का अद्वितीय चित्रण। बहुत ही खूब।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार शुक्रिया तहे दिल से आपका मौलिक जी

      Delete
  5. सुंदर रचना श्वेता जी.
    Sudhaa1075.blogspot.com

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत शुक्रिया आभार आपका तहेदिल से सुधा जी।

      Delete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...