जलते दोपहर का मौन
अनायास ही उतर आया
भर गया कोना कोना
मन के शांत गलियारे का
कसकर बंद तो किये थे
दरवाज़े मन के,
फिर भी ये धूप अंदर तक
आकर जला रही है
एक नन्ही गौरेया सी
पीपल की छाँव से पृथक
घर के रोशनदान में
एक एक तिनके बटोर कर
छोटा सा आशियां बनाने
को मशगूल हो जैसे
जिद्दी और कही जाती ही नहीं,
उड़ के वापस आ जाती है
बस तुम्हारे ख्याल जैसे ही,
सोच के असंख्य उलझे
धागों में तुम्हारे ही अक्स
बार बार झटक तो रही हूँ
पर देखो न हर सिरा
तुम से शुरू होकर तुम पर
ही टिका हुआ है।
हर वो शब्द जो तुम कह गये
बार बार मन दुहरा रहा
मैं बाध्य तो नहीं तुम्हें सोचने को
पर तुम जैसे बाध्य कर रहे हो
मन का पंछी उड़कर कहीं
नहीं जा पा रहा,लौट रहा रह रह के
थक सी गयी विचारों के द्वंद्व से,
कुछ नहीं बदलता अन्तर्मन में
अनवरत विचार मग्न मन
अपना सुख जिसमें पाता
चाहो न चाहो बस वही सोचता है
सही-गलत ,सीमा- वर्जनाएँ
कहाँ मानता है मन का पंछी
तुम्हारे मौन से उद्वेलित,बेचैन
मन बहुत उदास है आज।
#श्वेता🍁
अनायास ही उतर आया
भर गया कोना कोना
मन के शांत गलियारे का
कसकर बंद तो किये थे
दरवाज़े मन के,
फिर भी ये धूप अंदर तक
आकर जला रही है
एक नन्ही गौरेया सी
पीपल की छाँव से पृथक
घर के रोशनदान में
एक एक तिनके बटोर कर
छोटा सा आशियां बनाने
को मशगूल हो जैसे
जिद्दी और कही जाती ही नहीं,
उड़ के वापस आ जाती है
बस तुम्हारे ख्याल जैसे ही,
सोच के असंख्य उलझे
धागों में तुम्हारे ही अक्स
बार बार झटक तो रही हूँ
पर देखो न हर सिरा
तुम से शुरू होकर तुम पर
ही टिका हुआ है।
हर वो शब्द जो तुम कह गये
बार बार मन दुहरा रहा
मैं बाध्य तो नहीं तुम्हें सोचने को
पर तुम जैसे बाध्य कर रहे हो
मन का पंछी उड़कर कहीं
नहीं जा पा रहा,लौट रहा रह रह के
थक सी गयी विचारों के द्वंद्व से,
कुछ नहीं बदलता अन्तर्मन में
अनवरत विचार मग्न मन
अपना सुख जिसमें पाता
चाहो न चाहो बस वही सोचता है
सही-गलत ,सीमा- वर्जनाएँ
कहाँ मानता है मन का पंछी
तुम्हारे मौन से उद्वेलित,बेचैन
मन बहुत उदास है आज।
#श्वेता🍁
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 05 मई 2017 को लिंक की गई है............................... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा.... धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार दी खूब सारा,मान देने का शुक्रिया।।
Deleteबहुत खूबसूरत पंक्तियाँ। कमाल का वर्णन
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ध्रुव जी शुक्रिया।।
Deleteविरह वेदना की मार्मिकता और मन में चलती कशमकश /अंतर्द्वंद्व "तुम बिन " के रूप में ही उभरती है और सबकी अपनी-अपनी भावनाएँ इसमें समाहित होकर प्रबल धारा बन जाती है। सरल ,सुगढ़ ,सहज और रसमयी रचना की प्रस्तुति के लिए बधाई।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका। इतना सूक्ष्म विश्लेषण किया आपने।हृदय से आभार रवीन्द्र जी।
Deleteतुम्हारे मौन से उद्वेलित,बेचैन...मन बहुत उदास है आज।
ReplyDeleteमौन ... मेरी समझ से या तो बहुत कुछ कह जाती है या बहुत तड़पाती है। मौन, खामोशी - परा जीवन या कहें तो मौत का द्योतक भी है।
हृदयस्पर्शी वर्णन।।
जी बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका P.K ji
Deleteजी मौन सदैव ही मुखरित होता है।।
बहुत ही उम्दा लिखा है आपने
ReplyDeleteजी बहुत आभार संजय जी
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