Tuesday, 18 July 2017

बादल पर्वत पर ठहरे है

किरणों के बाल सुनहरे है
लुक छिप सूरज के पहरे है

कलकल करती जलधाराएँ
बादल पर्वत पर ठहरे है

धरती पे बिखरी रंगोली
सब इन्द्रधनुष के चेहरे है

रहती है अपने धुन में मगन
चिड़ियों के कान भी बहरे है

टिपटिप करती बूँदों से भरी
जो गरमी से सूखी नहरे है

चुप होकर छूती तनमन को
उस हवा के राज़ भी गहरे है




12 comments:

  1. बेहतरीन रचना

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    1. बहुत बहुत आभार आपका शुक्रिया लोकेश जी।

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  2. बहुत सुन्दर ,आभार। "एकलव्य"

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    1. आपका आभार बहुत सारा 'एकलव्य' जी।

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  3. वाह ! वाह ! क्या कहने हैं ! लाजवाब ! बहुत खूब आदरणीया ।

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    1. बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपक सर।

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  4. वाह ... एक और नयी ताजगी का एहसास कराती हुयी रचना ...

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    1. बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका नासवा जी।

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  5. वाह ! इतनी सहज सरल अभिव्यक्ति कि बच्चे भी गुनगुना सकें। मेरा बस चलता तो मैं इस रचना को माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल करने की अनुशंसा करता।
    लेखन का उद्देश्य यही होना चाहिए कि वह ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की पहुँच बने। आपके भीतर बैठे रचनाकार को मैं बहुत ऊँचाई पर जाता हुआ महसूस करता हूँ। ढेरों मगलकामनाएँ ! लिखते रहिये। माँ सरस्वती आपकी लेखनी को अपना आशीर्वाद प्रदान करें।

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    1. रवींद्र जी , आपकी ऐसी मनोहारी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ।आपने इतना मान दिया बहुत बहुत आभार आपका। आप सदैव प्रोत्साहित करते है
      मुझे उत्साह वर्धन करते है अपनी विशेष टिप्पणी से।सदैव आभारी रहेगे।
      आपकी शुभकामनाओं की सदैव आकांक्षी हूँ। ह
      हार्दिक आभार आपका रवींद्र जी ।धन्यवाद।

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  6. रहती है अपने धुन में मगन
    चिड़ियों के कान भी बहरे है
    बहुत प्यारी पंक्तियाँ !

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    1. जी,बहुत बहुत आभार आपका मीना जी आपका सदैव स्वागत है कृपया स्नेह बनाये रखे।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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